जब हम शिक्षा के क्षेत्र में मानव विकास की अवस्थाओं पर विचार करते हैं तो हमारा तात्पर्य बाल विकास की अवस्थाओं से होता है क्योंकि शैक्षिक दृष्टिकोण से इन्हीं अवस्थाओं का विशेष महत्व होता है और बालक के भावी जीवन के लिए यही अवस्थाएँ आधार बन जाती है। अतः हम बाल विकास की अवस्थाओं का वर्णन कर रहे हैं --
बाल विकास की अवस्थाएँ
गर्भाधान से लेकर परिपक्व होने तक बालक का क्रमशः विकास होता रहता है। जन्म के उपरान्त बालक के विकास की प्रक्रिया को बाल मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न अवस्थाओं (Stages) में विभाजित किया है। प्रत्येक अवस्था के लक्षण यद्यपि भिन्न-भिन्न होते हैं किन्तु : एक अवस्था के लक्षण अपने से पूर्व वाली अवस्थाओं के लक्षण पर आधारित होते हैं। इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं के मध्य ठीक स्पष्ट रेखा नहीं खींची जा सकता है। विद्वानों ने बाल व विकास के क्रम को समझाने के लिए ही उसे विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित किया है। प्रत्येक अवस्था की अपनी समस्याएँ होती है। अब हम विभिन्न विद्वानों के द्वारा बाल विकास की अवस्थाएँ प्रस्तु करेंगे -
1. रॉस (Ross) के अनुसार
1.1 से 3 वर्ष तक शैशव काल
2. 3 से 6 वर्ष तक पूर्व-बाल्यकाल
3. 6 से 13 वर्ष तक उत्तर- बाल्यकाल
4. 12 से 18 वर्ष तक किशोरावस्था
2. अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संस्था के विकासात्मक मनोविज्ञान विभाग सदस्यों के अनुसार
1. जन्म से एक वर्ष तक शैशवास्था (Infancy)
2. एक वर्ष से 12 वर्ष तक बाल्यावस्था (Childhood)
(i) 1 से 6 वर्ष तक प्रारम्भिक बाल्यावस्था
(ii) 6 से 10 वर्ष तक मध्य बाल्यावस्था
(iii)10 से 12 वर्ष तक उत्तर-बाल्यकाल
3.12 से 21 वर्ष तक किशोरावस्था (Adolescence)
(i) 12 से 14 वर्ष तक पूर्व किशोरावस्था
(ii) 14 से 16 वर्ष तक मध्य बाल्यावस्था
(iii) 16 से 21 वर्ष तक उत्तर- बाल्यकाल
3. हरलॉक (Hurlock) के अनुसार
1. गर्भाधान से लेकर जन्म तक गर्भावस्था (Pre-natal Stage)
2. जन्म से 12 दिन तक प्रारम्भिक शैशवास्था (Infancy)
3. 14 दिन से 2 वर्ष तक उत्तर शैशवावस्था (Babyhood)
4. 2 वर्ष से 11 वर्ष तक बाल्यावस्था (Childhood)
5. 11 वर्ष से 21 वर्ष तक किशोरावस्था (Adolescence)
(i) 11 वर्ष से 13 वर्ष तक पूर्व किशोरावस्था (Pre- Adolescence)
(ii)13 से 17 वर्ष तक प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early Adolescence)
(iii) 17 से 21 वर्ष तक उत्तर किशोरावस्था (Late Adolescence)
बाल विकास की अवस्थाओं के उपर्युक्त विभाजन में हरलॉक (Hurlock) द्वारा किया गया विभाजन बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसमें गर्भाधान conception) से लेकर परिपक्वता आने तक की अवस्थाओं का समावेश किया है। अन्य विद्वानो ने गर्भावस्था को अपने विभाजन में सम्मिलित नहीं किया है। अब हम बाल विकास की नवस्थाओं की संक्षेप में जानकारी प्राप्त करने की लिए हरलॉक द्वारा प्रस्तुत की हुई अवस्थाओं पर प्रकाश डालेंगे ー
1. गर्भावस्था - यह अवस्था गर्भाधान से जन्म तक रहती है। इस अवस्था की अवधि 9 मास या 280 दिन है। यह बाल विकास की सबसे तीव्र गति की अवस्था है। अण्ड कोष्ठ (Egg cell) तथा शुक्र कोष्ठ (Sperm cell) के समन्वय से जो कोष्ठ विभाजन की प्रक्रिया (Mitosis) होती है उसके बीजाणु क्रमशः विकसित होते-होते 9 महीने तक 3 किलोग्राम वजन और 20 इंच लम्बे शिशु का रूप ग्रहण कर लेते हैं। गर्भावस्था में मुख्य रूप से बालक का शारीरिक विकास हो ही जाता है।
2. प्रारम्भिक शैशवावस्था— यह अवस्था जन्म से लेकर 14 दिन तक को अवस्था है। इसको प्रायः नवजात अवस्था कहा जाता है। यह विकास में एक पठार या विश्रामावस्था है जिससे विकास की गति रुक जाती है क्योंकि इस अवस्था मे शिशु नवीन वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। इसके द्वारा ही वह आत्मनिर्भर बनता है।
3. उत्तर शैशवावस्था- इस अवस्था की अवधि जन्म के 14 दिन के बाद से 2 वर्ष तक की है। इस अवस्था में शिशु अपनी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर होता है। धीरे-धीरे वह अपनी मांसपेशियों पर नियन्त्रण करना सीखने लगता है जिससे वह खाने-पाने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, बोलने-खेलने आदि की क्रियाएँ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकें |
4. बाल्यावस्था- यह अवस्था 2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बालक वातावरण से सामजस्य करने लगता है और उस पर नियन्त्रण करने लगता है। जब वह वातावरण में किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव करता है तो वह अपनी वाणी को सहायता लेता है और वातावरण से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार प्रकार के प्रश्न पूछता है। इस प्रकार उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत तीव्र होती है। 6 वर्ष की आयु होने पर उसमें सामाजिकता की भावना का विकास होने लगता है और वह मित्र मण्डली बनाकर खेलना पसन्द करता है|
5. किशोरावस्था— यह अवस्था 11 वर्ष से लेकर 21 वर्ष तक की होती है। हरलॉक ने इस अवस्था को निम्नलिखित तीन उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है ㅡ
(i) पूर्व किशोरावस्था- यह अवस्था प्राय: दो वर्ष तक की अर्थात् 11 वर्ष से 13 वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में बालक तथा बालिकाओं के यौन अंगो की तीव्र विकास होता है किन्तु उनका संवेगात्मक एवं सामाजिक नियन्त्रण जो अब तक विकसित हुआ था शिथिल होने लगता है। फलस्वरूप कई बातों पर उनका नकारात्मक दृष्टिकोण रहता है। इसलिए इस अवस्था को बुहलर ने सकारात्मक अवस्था कहा है।
(ii) प्रारम्भिक किशोरावस्था— यह अवस्था 13 से 17 वर्ष तक ही है। इसमें बालक तथा बालिकाओं का पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास हो जाता है। इन अवस्था में बालक प्रायः हाईस्कूल कक्षाओं में पढ़ता है।
(iii) उत्तर किशोरावस्था - यह अवस्था 17 से 21 वर्ष तक की होती है। शारीरिक तथा मानसिक विकास पूर्ण हो चुकने के कारण अब किशोर तथा किशोरी पूर्ण वयस्क हो जाते है। इस अवस्था में वे समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाना चाहते हैं। अतः वे माता-पिता एवं अन्य लोगों तथा रीति-रिवाजों से स्वतन्त्र होने की तीव्र इच्छा करने लगते हैं। वे अपना जीवन विपरीत यौन के व्यक्तियों के साथ बिताने के लिए तीव्र आकांक्षा करने लगते हैं। इस अवस्था के बाद वे प्रौढ़ावस्था में पदार्पण करते हैं।
4. जोन्स के अनुसार
उपर्युक्त वर्णित अवस्थाओं का सुविधाजनक अध्ययन करने के लिए डॉ० अरनेस्ट जोन्स द्वारा किया गया विकास की अवस्थाओं का विभाजन अधिक उपयुक्त है। उनके अनुसार व्यक्ति का विकास निम्नलिखित चार सुस्पष्ट अवस्थाओं में होता है —
1. शैशवास्था (Infancy) जन्म से 3 वर्ष तक
2. बाल्यावस्था 6 से 12 वर्ष तक
3. किशोरावस्था (Adolescence) 12 से 18 वर्ष तक
4. प्रौढ़ावस्था (Adulthood) 18 वर्ष के बाद।
बाल विकास के सिद्धान्त
बाल विकास के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
1. समविकास का सिद्धान्त – आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा क्रमिक विकास के सिद्धान्त का पक्ष नहीं किया गया है। इनके मतानुसार बालकों की सभी मानसिक क्रियाओं का विकास एक साथ होता है क्योंकि बालक में सभी मानसिक क्रियाएँ निहित रहती हैं। यह एक अलग बात है कि उनका विकास किसी विशेष परिस्थिति में होता है कि नहीं।
2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त प्राचीन मनौवैज्ञानिकों का यह मानना रहा है कि बालक की मानसिक क्रियाओं का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। सर्वप्रथम एक मानसिक क्रिया का विकास होता है और उसके पूर्ण होने पर दूसरी मानसिक क्रिया का विकास आरम्भ होता है। उदाहरण के लिए, प्रत्यक्षीकरण का विकास पहले होता है और उसके पूर्ण होने पर स्मृति का विकास होता है।
अभिवृद्धि तथा विकास का महत्व
शिक्षा में अभिवृद्धि तथा विकास के महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है--- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थी का चहुमुखी विकास कराना होता है। चहुमुखी विकास का तात्पर्य एक बालक के सर्वांगीण अथवा मानसिक, सामाजिक एवं चारित्रिक विकास से लगाया जाता है। किसी भी बालक का चहुमुखी विकास करने के लिए शिक्षक को उसकी अवस्था को विशेषताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि विकास की प्रत्येक अवस्था में मानसिक संवेगात्मक विकास के आवेग भिन्न-भिन्न होते हैं। इन अवस्थाओं में मानसिक स्थिति विभिन्न संघर्षों एवं तनाव से सम्बद्ध होती है तथा शारीरिक विकास भी भिन्न-भिन्न होता है।
इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति बालक के विकास के रूप में फल देती है। बालक के विकास का दायित्व घर में अभिभावक एवं विद्यालय में अध्यापक के कन्धों पर होता है।
एक बालक का चहुमुखी विकास तभी सम्भव है जब घर में अभिभावक व विद्यालय में अध्यापक उसकी मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक समस्याओं का समाधान करें। इन समस्याओं के समाधान करने के लिए अध्यापक को उन तत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है जो बालक के सामाजिक, मानसिक संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं। इन तत्वों के ज्ञान होने पर हो इन कारकों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है एवं शिक्षा के उद्देश्यों के अनुसार उनका मार्ग दर्शन किया जा सकता है।
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