अभिवृद्धि एवं विकास



अभिवृद्धि एवं विकास 


अभिवृद्दि एवं विकास की प्रक्रिया का शिक्षा से गहन सम्बन्ध है। यही कारण है से कि मनोविज्ञान के अन्तर्गत, अभिवृद्धि एवं विकास के अध्ययन को सम्मिलित किया गया है। इस अध्ययन के आधार पर यह विदित होता है कि व्यक्ति की अभिवृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन-से है। इन कारकों को ध्यान में रखकर ही यह सम्भव हो पाता है। कि शिक्षार्थियों को विकास पथ पर प्रशस्त करने वाली व्यूह रचना का समुचित रूप से निर्धारण किया जाये।


अभिवृद्धि का अर्थ


व्यक्ति की शैशव अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक, शरीर के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन के साथ-साथ की लम्बाई, चौड़ाई तथा भार भी परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति के शरीर की रचना में परिवर्तन होने के सर्वप्रमुख कारण, बाह्य वातावरण से अन्तः क्रिया करना है। व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं का निर्माण एवं विघटन, सामाजिक वातावरण भोजन तथा जलवायु इत्यादि के प्रभाव स्वरूप होता रहता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के शरीर की कभी लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में वृद्धि होती है तो कभी उसका विघटन होता है। व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि को मापा भी जा सकता है। अतः वृद्धि व्यक्ति के शरीर से सम्बन्धित होती है। यदि पूर्व की अपेक्षा व्यक्ति के शरीर की लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में थोड़ी सी भी बढ़ोत्तरी होती है तो उसे वृद्धि कहा जा सकता है। सोरन्सन के शब्दों में- “वृद्धि से आशय शरीर तथा शारीरिक अंगों का भार तथा आकार की दृष्टि से वृद्धि होना है, ऐसी वृद्धि जिसका मापन सम्भव हो।"


विकास का अर्थ

विकास शब्द परिवर्तन का द्योतक है। व्याक्ति में यथा समय होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को विकास कहा जाता है। विकास के अन्तर्गत व्यक्ति में मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है अर्थात् व्यक्ति में होने वाले समस्त परिवर्तनों को विकास कहा जाता है। व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों पर वैयक्तिक भिन्नता का प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के इस विकास की निश्चित दिशा होती है अथवा परिवर्तन एक निर्धारित क्रम की दिशा में होता है। यह विकास कभी अवरूद्ध नहीं होता वरन् शनैः शनैः सतत् रूप में, किसी-न-किसी रूप में परिपक्वता की दिशा में बढ़ता रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की विभिन्न विशेषताओं में विभिन्न गुणात्मक परिवर्तनों के देखा जा सकता है। वृद्धि एवं विकास के उपर्युक्त अर्थ से स्पष्ट होता है कि अभिवृद्धि मुख्य रूप से शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित होती है। शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों का मापन भी किया जा सकता है तथा विकास के अन्तर्गत सामाजिक, सास्कृतिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक एवं संवेगात्मक परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है।


वृद्धि और विकास में अन्तर- एक सामान्य व्यक्ति के लिए वृद्धि और विकास में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता, लेकिन यदि ध्यान से देखा जाये तो वृद्धि और विकास में भी कई अन्तर देखने को मिलते हैं। इन अन्तरों को वर्णन निम्नलिखित हैं -

इस प्रकार हम देखते हैं कि वृद्धि शब्द का प्रयोग संकीर्ण होता है और विकास शब्द का प्रयोग व्यापक दृष्टि से होता है। लेकिन दोनों शब्दों का सम्बन्ध बालक के व्यक्तित्व की उन्नति के साथ ही होता है, इसलिए इन दोनों शब्दों को हम एक-दूसरे के लिये प्रयोग कर लेते हैं। 

वृद्धि व विकास के अन्तर को निम्न प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है --


1. वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तन का प्रतीक है। व्यक्ति के कद, भार, आकार, ऊँचाई आदि में होने वाले परिवर्तनों को वृद्धि कहा जाता है।

 विकास में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ-साथ विकासात्मक परिवर्तन भी सम्मिलित है। व्यक्तित्व के सभी पक्षों में उन्नति के लिये इसका प्रयोग किया जाता है।


2. वृद्धि की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलकर एक निश्चित आयु पर जाकर रूक जाती है अर्थात् शारीरिक परिपक्वता ग्रहण करने के बाद वृद्धि रूक जाती हैं। 

विकास की प्रक्रिया एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है। शारीरिक परिपक्वता ग्रहण करने के बाद भी यह प्रक्रिया चलती रहती है।


3. वृद्धि की प्रक्रिया के फलस्वरूप मनुष्य में होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनको मापा व तोला जा सकता है। 

विकास कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों को व्यक्त करता है। अतः इनको प्रत्यक्ष रूप से मापा नहीं जा सकता लेकिन इनका अनुभव किया जाता है और इनका निरीक्षण किया जा सकता है।


4. वृद्धि की प्रक्रिया विकास की प्रक्रिया का एक अंशमान है। वृद्धि शब्द अत्यन्त सीमित अर्थ लिये हुए हैं। 

विकास शब्द अत्यन्त व्यापक है। यह व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास से सम्बन्धित है। वृद्धि विकास प्रक्रिया

 की ही एक उपक्रिया कही जा सकती है |


अविकास-क्रम में होने वाले परिवर्तन

(Trend of Changes in Development Process)


विकास-क्रम में होने वाले परिवर्तनों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है --


(1) आकार परिवर्तन (Change in Size) - जन्म के बाद ज्यों-ज्यों बालक की = of आयु बढ़ती जाती है, उसके शरीर में परिवर्तन होता जाता है। शरीर के ये परिवर्तन-बाह्य एवं आन्तरिक दोनों अवयवों में होते हैं। शरीर की लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में वृद्धि होती है। आन्तरिक अंग जैसे हृदय, मस्तिष्क, उदर, फेफड़ा आदि का आकार भी बढ़ता है। शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। आयु में वृद्धि के साथ-साथ 30 बालक का शब्दकोष बढ़ता है और स्मरण शक्ति का भी विस्तार होता है।


(2) अंग-प्रत्ययों के अनुपात में परिवर्तन (Proportional Change in Bodily Parts) - बालक एवं वयस्क के अंग-प्रत्यंगों के अनुपात में अन्तर होता है। बाल्यावस्था में हाथ-पैर की अपेक्षा सिर बड़ा होता है, किन्तु किशोरावस्था में आने पर यह अनुपात वयस्कों के समान होता है। इसी प्रकार का अन्तर मानसिक विकास में भी देखने को मिलता है। प्रारम्भ में बालक काल्पनिक जगत में घूमता है, किन्तु किशोरावस्था के बाद वह वास्तविक जगत में आ जाता है। बाल्यावस्था में बालक आत्मकेन्द्रित होता है किन्तु किशोरावस्था में वह विषमलिंगी में रुचि लेने लगता है।


(3) कुछ चिन्हों का लोप (Disappearance of Some Signs) — विकास के साथ ही थाइमस ग्रन्थि, दूध के दाँत आदि का लोप हो जाता है। इसके साथ ही वह बाल-क्रियाओं एवं क्रीड़ाओं को भी त्याग देता है।


(4) नवीन चिह्नों का उदय (Origin of New Signs) — आयु में वृद्धि रहन साथ-साथ बालक में अनेक नवीन शारीरिक एवं मानसिक चिह्न प्रकट होते रहते हैं; उदाहरण के लिए, स्थायी दाँतो का उगना। इसके साथ ही लैंगिक चेतना का भी विकास होता है। - किशोरावस्था में मुँह एवं गुप्तांगों पर बाल उगने प्रारम्भ हो जाते हैं।


अभिवृद्धि व विकास के सिद्धान्त

(Principles of Growth & Development)


(I) समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) - एक के जीवों में विकास का एक क्रम पाया जाता है और विकास की गति का प्रतिमान भी समान रहता है। मानव जाति के विकास पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। गेसेल ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि, “यद्यपि दो व्यक्ति समान नहीं होते हैं, किन्तु सभी सामान्य बालकों में विकास का क्रम समान होता है।" विश्व के सभी भागों में बालकों का गर्भावस्था या जन्म के बाद विकास का क्रम सिर से पैर की ओर होता है। इसी सिद्धान्त की पुष्टि हरलॉक महोदय ने भी की है।


(2) सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Response) - बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर होता है। बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम सामान्य प्रतिक्रिया होती है, उसके बाद वह विशिष्ट रूप धारण करती है। उदाहरण के लिए, प्रारम्भ में बालक किसी वस्तु को पकड़ने के लिए सामान्य अंगों को प्रयोग में लाता है, किन्तु बाद में वह उस वस्तु को पकड़ने के लिए विशिष्ट अंग का प्रयोग करता है। शैशवावस्था में बालक किसी वस्तु को देखकर उसको पकड़ने के लिए हाथ, पैर, मुख, सिर आदि को चलाता है, किन्तु आयु में वृद्धि होने पर वस्तु को पकड़ने के लिए हाथ की प्रतिक्रिया करता है। इसी प्रकार का रूप उसके अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।


(3) सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth) - मानव के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक सतत् रूप में चलता रहता है | विकास की गति कभी तीव्र या कभी मन्द हो सकती है। बालक में गुणों का विकास यकायक नहीं होता है। इनका विकास सतत् रूप में मन्द गति से होता रहता है। इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए बालकों के दाँतों का उदाहरण दिया जा सकता है। लगभग 6 माह की आयु पर शिशु के दूध के दाँत निकलने पर अनुभव होता है कि ये दाँत यकायक प्रकट हुए हैं। वास्तविकत यह कि दाँतों का विकास 5 माह की भ्रूणावस्था से प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु वे जन्म के बाद से 6 माह की आयु में मसूढ़ों से बाहर निकलना प्रारम्भ होते हैं।


(4) परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relationship ) - इस सिद्धान्त से तात्पर्य है कि बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं। एक गुण का विकास जिस प्रकार हो रहा है, अन्य गुण भी उसी अनुपात में विकसित होंगे; उदाहरण के लिए, तीव्र बुद्धि वाले बालक के मानसिक विकास के साथ ही उसका शारीरिक और सामाजिक विकास भी तीव्र गति से होता है। इसके विपरीत मन्द बुद्धि बालकों का शारीरिक एवं सामाजिक विकास भी मन्द होता है |


(5) शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में भिन्नता का सिद्धान (Principle of different rate of Growth of Different Parts of the Body) - शरीर के सभी अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है। इनके विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। यही बात मानसिक विकास पर भी चरितार्थ होती है। शरीर के कुछ अंग तेज गति से विकसित होते हैं और कुछ मन्थर गति से; उदाहरण के लिए, 6 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क विकसित होकर लगभग पूर्ण आकार प्राप्त कर लेता है, जबकि व्यक्ति के हाथ-पैर, नाक-मुँह का विकास किशोरावस्था तक पूरा हो जाता है। यह सिद्धान्त शारीरिक पक्ष के साथ-साथ मानसिक पक्ष भी लागू होता है। बालक में सामान्य बुद्धि का विकास 14 या 15 वर्ष की आयु में पूर्ण हो जाता है, किन्तु तर्क शक्ति मन्द गति के साथ विकसित होती रहती है।


(6) विकास को दशा का सिद्धान्त (Principle of Development Direction) — इसी को केन्द्र परिधि की ओर विकास का सिद्धान्त कहते हैं। इसमें विकास सिर से पैर की ओर एक दिशा के रूप में होता है। बालक का सिर पहले विकसित होता हैं और पैर सबसे बाद में यही बात उसके अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद सर्वप्रथम अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयस है। 9 माह की आयु में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे घिसक कर चलते-चलते  वह पैरों के बल एक वर्ष की आयु में खड़ा हो जाता है।


(7) व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences) - बालकों के विकास के क्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताएं भी अपना प्रभाव दिखाती हैं, इनके प्रभाव के कारण विकास की गति में अन्तर आ जाता है। किसी के विकास की गति तीव्र और किसी की मन्द होती है। अतएव आवश्यक नहीं कि सभी बालक एक निश्चित अवधि पर ही किसी विशिष्ट अवस्था की परिपक्वता प्राप्त कर लें। 


(8) भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Variation) - विकास का क्रम एक समान हो सकता है, किन्तु विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास की गति शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में तीव्र रहती है, किन्तु बाल्यावस्था में मन्द पड़ जाती है। इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं की विकास गति में भी भिन्नता पाई जाती है। 


विकास-सिद्धान्तों का महत्त्व (Importance of Development Principles) - विकास के प्रमुख सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक एवं सामान्य व्यक्ति सभी के लिए महत्वपूर्ण होता है। इनके ज्ञान का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से अधिक है -

विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान से ज्ञात होता है कि बालकों से कब और किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करनी चाहिए। इसके ज्ञान के अभाव में हम बालकों से बहुत अधिक गुणों की अपेक्षा करने लगते हैं या उनको निरर्थक समझने लगते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ बालक के विकास के लिए हितकर नहीं होती हैं। प्रथम स्थिति में बालक में हीनता की भावना आ जाती है और दूसरी स्थिति में उनको विकास के उत्प्रेरक नहीं मिल पाते हैं।

विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान हमको बताता है कि हम कब बालकों के विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करें। इसके ज्ञान से बालकों के यथोचित विकास के लिए अनुकूल वातावरण की रचना की जा सकती है; उदाहरण के लिए, जब बालक चलना या बोलना प्रारम्भ करे तो उसे इसका अभ्यास करवाना चाहिए।

विकास के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ होने के कारण बालकों में कभी-कभी मानसिक तनाव या संघर्ष पैदा हो जाता है जिसके कारण उनमें भावना-ग्रन्थियाँ विकसित हो जाती हैं। शिक्षक एवं माता-पिता बालकों को विकास सम्बन्धी परिवर्तनों का पूर्व ज्ञान देकर उनमें उत्पन्न होने वाले तनाव को कम कर सकते हैं।

इन विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक को विद्यालयों में कियाओं का आयोजन करने में भी सहायक होता है।


मानव-विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(Factors Influencing Growth & Development)


मानव-विकास क्रम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व होते हैं। इन तत्वों द्वारा विकास को गति प्राप्त होती है तथा ये तत्तव विकास को नियन्त्रित भी रखते हैं। यहाँ उन  तत्वों पर संक्षिप्त में विचार करना उपयुक्त होगा।


(1) वंशानुक्रम (Heredity) - बालक का विकास वंशानुक्रम से उपलब्ध गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है। गर्भधारण करने के साथ ही बालक में पैतक कोषों का आरम्भ हो जाता है तथा यहीं से बालक की वृद्धि एवं विकास की सीमाएं सुनिश्चित हो जाती है। ये पैतृक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं। बालक के कद, आकृति, बुद्धि, चरित्र आदि को भी वंशानुक्रम सम्बन्धी विशेषतायें प्रभावित करती हैं | अनुसंधानों के आधार पर देखा गया है कि चरित्रहीन माता-पिता के बालक चरित्रहीन ही होते हैं। 


(2) वातावरण (Environment) -  वातावरण भी बालक के विकास को प्रभावित करने वाला तत्व है। वातावरण के प्रभावस्वरूप व्यक्ति में अनेक विशेषताओं का विकास होता है। शैशवावस्था से ही वातावरण बालक को प्रभावित करने लगता है। बालक के जीवन दर्शन एवं शैली का स्वरूप, स्कूल, समाज, पड़ौस तथा परिवार के प्रभाव के परिणामस्वरूप ही स्पष्ट होता है। शनैः शनैः बालक उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है जिसमें वह अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार वातावरण पर प्रभाव डालने में सक्षम होता है।


(3) बुद्धि (Intelligence) - मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर निश्चित किया है कि कुशाग्रबुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास मन्द बुद्धि वालों की अपेक्षा अधिक तेज गति से होता है। कुशाग्रबुद्धि बालक शीघ्र बोलने एवं चलने लगते हैं। प्रतिभाशाली बालक 11 माह में, सामान्य बुद्धि बालक 16 माह की आयु में और मन्द बुद्धि बालक 24 माह की आयु में बोलना सीखता है।


(4) लिंग (Sex) – बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में लिंग-भेद का प्रभाव भी पड़ता है। जन्म के समय बालकों का आकार बड़ा होता है, किन्तु बाद में बालिकाओं में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है। इसी प्रकार बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालकों से पहले आ जाती है।


(5) अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands) - बालक के शरीर में अनेक अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से विशेष प्रकार के रस का स्राव होता है। यही रस बालक के विकास को प्रभावित करता है। यदि ये ग्रन्थियाँ रस का स्राव ठीक प्रकार से न करें तो बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है; उदाहरण के लिए, गल-ग्रन्थि (Thyroid (Gland) से स्रावित रस थाइरॉक्सिन बालक के कद को प्रभावित करता है। इसके स्रावित न होने पर बालक बौना रह जाता है।


(6) जन्म-क्रम (Birth Order) - बालक के विकास पर परिवार में जन्म-क्रम का प्रभाव भी पड़ता है। अध्ययनों से पता चलता है कि परिवार में जन्म लेने वाले प्रथम बालक की अपेक्षा दूसरे, तीसरे बालक का विकास तेज गति से होता है। इसका कारण यह है कि बाद के बालक अपने से पूर्व जन्में बालकों से अनुकरण द्वारा अनेक बातें शीघ्र सीख लेते हैं।


(7) भयंकर रोग एवं चोट (Serious Diseases and Injuries) — भयंकर रोग एवं चोट बालक के विकास में बाधा पैदा करते हैं। लम्बी बीमारियों के कारण बालक का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार बालक के सिर पर भारी चोट लगने से भी विकास में बाधा पहुँचती है।


(8) पोषाहार (Nutrition) - सन् 1955 में वाटरलू ने अफ्रीका और भारत के चालकों के विकास पर कुपोषण के प्रभाव का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि कुपोषण से बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।


(9) शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Pure Air and Light) - शुद्ध वायु एवं प्रकाश न मिलने पर बालक अनेक रोगों का शिकार बन जाता है और इसके परिणामस्वरूप उसके विकास में अवेधान पैदा हो जाता है।


(10) प्रजाति (Race) - प्रजातीय प्रभाव के कारण बालकों के विकास में विभिन्नताएँ पाई जाती है| अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी यूरोप की अपेक्षा भूमध्यसागरीय बच्चों विकास तेज गति से होता है। 

विकास की अवस्थायें (Stages of Development) 


Comments