October 10, 2023

प्रशासन एवं प्रबन्धन के कार्य (Functions of Administration and Management)

 प्रशासन एवं प्रबन्धन के कार्य

(Functions of Administration and Management)


आज के युग में, शिक्षा के क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकास होने के साथ-साथ शैक्षिक प्रशासन के कार्यों में भी तीव्रगति से वृद्धि हुई है। शैक्षिक प्रशासन से सम्बद्ध सभी व्यक्ति शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति को ही अपना मानकर कार्य को सम्पादित करते हैं। शिक्षा प्रशासन के माध्यम से ही समाज में संचालित विद्यालयों एवं अन्य शैक्षिक संस्थाओं के कार्यों को संचालित किया जाता है ताकि अधिक से अधिक प्रतिफल प्राप्त हो सके शैक्षिक प्रशासन के भिन्न-भिन्न कार्यों का उल्लेख भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा किया गया है जो निम्न प्रकार है –

[1] मॉलमेल के अनुसार शिक्षा प्रशासन के कार्य (Functions of Administration according to Malmale)


शिक्षाविद् मॉलमेल ने शैक्षिक प्रशासन के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया है--


(A) निर्देशात्मक कार्य (Directive Function)

(B) क्रियाशील कार्य (Active Function)

(A) निर्देशात्मक कार्य (Directive Function)—

इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं--


(1) शिक्षा के भिन्न-भिन्न प्रकारों का प्रशासन करना।

(2) शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तरों का शासन करना।

(3) शिक्षा की भिन्न-भिन्न शाखाओं को प्रशासन करना।

(4) शिक्षकों हेतु व्यावसायिक शिक्षाको व्यवस्था करना।

(5) श्रव्य-दृश्य प्रशिक्षण एवं सेवाओं की व्यवस्था करना। 

(6) शिक्षक कल्याण एवं छात्र-सेवा की व्यवस्था करना।

(7) शैक्षिक मूल्यांकन एवं प्रमाण-पत्र कार्यक्रम। 

(8) सेवारत शिक्षकों एवं विस्तार शिक्षा की व्यवस्था करना।

(9) निर्देशात्मक कार्यक्रमों का संगठन करना।


(B) क्रियाशील कार्य (Active Function)— 

इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यों का समावेश किया गया है - 

(1) जनता, विद्यालय, महाविद्यालय एवं पुस्तकालय को सेवाएं करना।।

(2) अनुशासन एवं नियन्त्रण रखना। 

(3) शैक्षिक एवं व्यावसायिक सेवाओं की व्यवस्था करना।

(4) वैयक्तिक प्रशासन ।

(5) शिक्षकों की नियुक्ति एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

(6) शैक्षिक वित्त योजना बनाना।

(7) शोध प्रशासन, सर्वेक्षण एवं साख्यिकी ।

(8) व्यवस्था करना।

(9) नीतियों एवं विधियों को निधारित करना।

(10) शैक्षिक योजना बनाना एवं उन्हें क्रियान्वित करना।

(11) पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन करना। 

(12) पाठ्यक्रम पुनर्गठन एवं प्रशासन करना।

(13) छात्रवृत्तियों एवं अन्य अनुदानों का विवरण करना।


[ ॥] सीयर्स के अनुसार शिक्षा प्रशासन के कार्य (Functions of Educational Administration according to Seeyers)

 जे०वी० सीयर्स ने शैक्षिक प्रक्रिया की प्रकृति (The Nature of the Administration Process) नामक अपनी पुस्तक में शिक्षा प्रशासन के पाँच प्रमुख कार्यों का उल्लेख किया है-

(1) योजना बनाना (Planning) 

(2) व्यवस्था करना (Organization)

(3) निर्देशन या संचालन करना (Direction)

(4) समायोजन या समन्वय करना (Controlling and Evaluation) 

(5) नियन्त्रण या मूल्यांकन करना (Controlling and Evaluation)

उपरोक्त कार्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

(1) योजना बनाना (Planning)-

जे०वी० सीयर्स महोदय का मानना है कि प्रशासन का सर्वप्रथम एवं प्रमुख कार्य-योजना बनाना है। क्योंकि योजना निर्माण पर ही किसी कार्य की सफलता या असफलता नि करती है। योजना का निर्माण करते समय सर्वप्रथम उद्देश्यों का निर्धारण करना पड़ता है। कार्य के सम्बन्ध सूचनाओं का संकलन किया जाता है एवं आवश्यकताओं एवं बाधाओं को भी ध्यान में रखा जाता है।उपरोक्त्त तथ्यों का अभिप्रायः यह है कि किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उन सभी बातों पर विश्लेषणात्मक ढंग विचार किया जाता है जिनको सम्पादित करने से कार्य में सफलता प्राप्त होती है। 


(2) व्यवस्था करना (Organization)- 

सीयर्स महोदय के अनुसार शैक्षिक प्रशासन का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य व्यवस्था करना है। व्यवस्था का अभिप्राय योजना को क्रियान्वित कराने में सहायक आवश्यक साधनों को जुटाना है। व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वप्रथम कुछ नियमों एवं कार्य करने का ढंग का निर्धारण किया जाता है। सीयर्स के अनुसार शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत दो तथ्यों पर ध्यान देना नितान्त आवश्यक है--

 (1) शिक्षण कार्य की सरलता एवं सुगमता के लिए विभिन्न उपकरणों को जुटाना ।

(ii) शैक्षिक कार्य करने वाले व्यक्तियों को जुटाना। शिक्षण कार्य की सरलता एवं सुगमता के लिए विभिन्न उपकरणों के जुटाने का अभिप्राय कक्षा भवन् बैठने की कुर्सियों, मेज, श्यामपट्ट, चाक, डस्टर, सहायक सामग्री आदि से लिया जाता है जबकि शैक्षिक कार्य करने वाले व्यक्तियों को जुटाने का अभिप्राय-शिक्षक, लिपिक तथा अन्य कर्मचारियों से लिया जाता है।


(3) निर्देशन या संचालन करना (Direction)—

सीयर्स महोदय के अनुसार शिक्षा प्रशासन क तीसरा महत्त्वपूर्ण कार्य निर्देशन या संचालन करना है। संचालन के सम्बन्ध में सीयर्स का कहना है कि प्रशासन के अन्तर्गत, संचालन कार्य निर्णय को प्रभावित करता है। कार्य को प्रारंभ करने का संकेत देता है। यह बताता है कि  कार्य  कब प्रारंभ किया जाए और कब खत्म किया जाए ।इस दृष्टिकोण से संचालन को गत्यात्मक कहा जा सकता है और कार्य करने हेतु उत्तरदाई व्यक्ति द्वारा संचालन को निर्देशित एवं नियंत्रित किया जा सकता है।


(4) समायोजन या समन्वय स्थापित करना (Controlling and Evaluation)-

 सीयर्स महोदय का मानना है कि शैक्षिक प्रशासन का चौथा महत्त्वपूर्ण कार्य समायोजन या समन्वय त्यापित करना है। समन्वय के सम्बन्ध में सीयर्स महोदय का कहना है कि, प्रशासन के अन्तर्गत समायोजन या समन्वय व्यक्ति, सामग्री तथा साधनों के मध्य, इस आशय से मधुर सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे वे समस्त मिलकर किसी कार्य को प्रभावी ढंग से कर सकें।" समायोजन मानवीय एवं भौतिक साधनों को एक स्थान पर जुटाने का कार्य करता है। सीयर्स के अनुसार समायोजन का आशय है किसी कार्य की सफलता हेतु समस्त सम्बन्धित व्यक्तियों का परस्पर सहयोग एवं सद्भावनापूर्वक कार्य करना, समस्त व्यक्तियों को सामूहिक शक्ति प्रदान करना। विद्यालय के प्रबन्धक, प्रचार्य, शिक्षक, शिक्षार्थी, कर्मचारी आदि सभी को एक-दूसरे के विचारों का आदर करना चाहिए तथा एक टीम भावना के अनुसार कार्य करना चाहिए।


(5) नियन्त्रण या मूल्यांकन करना (Controlling and Evaluation ) -

सीयर्स महोदय के अनुसार शैक्षिक प्रशासन का अन्तिम महत्त्वपूर्ण कार्य नियन्त्रण या मूल्यांकन करना है। किसी भी संस्था एवं संगठन में कार्यरत व्यक्तियों की अच्छाई, बुराई और उनको कार्यक्षमता का मापन नियन्त्रण की प्रक्रिया द्वारा ही किया जाता है तथा मूल्यांकन के उपरान्त ही व्यक्तियों को निर्देशन प्रदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति किस सीमा तक अधिकारों का प्रयोग करेगा, इसका निर्धारण, नियन्त्रण की प्रक्रिया के अभाव में सम्भव नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में सीयर्स महोदय ने लिखा है कि, कोई भी जब तक सम्बन्धित व्यक्तियों, वस्तुओं या लक्ष्यों पर हो सही प्रकार नियन्त्रण न कर से तब तक वह किसी क्रिया के सम्बन्ध में निर्देशन नहीं दे सकता।


शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण प्रणाली तथा शिक्षकों के कार्यों का मूल्यांकन करने के अतिरिक्त पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, पाठ्य-पुस्तकें निर्देशन सामग्री पाठ्येतर क्रियाएं आदि सभी का मूल्यांकन किया जाता है। 


[IIl] शिकागो विश्वविद्यालय की नेशनल सोसायटी फॉर दी स्टडी ऑफ एजुकेशन के अनुसार शैक्षिक प्रशासन के कार्य  (Functions of Educational Administration according to National the Study of Education of Chikago University)

 

इस सोसायटी ने शैक्षिक प्रशासन के निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया है-

(1) स्थानीय नियन्त्रण को शक्ति प्रदान करना।

(2) प्रजातान्त्रिक पद्धति से युक्त कार्यक्रमों का संचालन करना।

(3) एक क्षेत्र से सम्बन्धित समस्याओं का संकलन करना। 

(4) मानवीय एवं भौतिक स्रोतों की क्षमताओं का अधिकाधिक लाभ उठाना ।

(5) सामाजिक संगठनों, संस्थाओं एवं जनता सेवकों द्वारा की गई प्रशंसा को अर्जित करना।

(6) नीतियों का निर्धारण करना एवं उन्हें लागू करना।

(7) व्यय धनराशि के बदले में अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना ।

(8) उत्तरदायित्वों को सौंपना ।


[IV] रसेल टी० ग्रेग के अनुसार शैक्षिक प्रशासन के कार्य (Functions of Educational Administration according to Russell T. Greg)


रसेल टी० ग्रेग के अनुसार शैक्षिक प्रशासन के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) निर्णय लेना (Decision Making)

(2) योजना बनाना (Planning)

(3) व्यवस्था करना (Organizing )

(4) सम्प्रेक्षण (Communication)

(5) प्रभाव डालना (Influencing)

(6) समन्वय करना (Co-ordinating)

(7) मूल्यांकन करना (Evaluation)


[V] हेनरी फेयॉल के अनुसार शिक्षा प्रशासन के कार्य (Functions of Educational Administration according to Henry Fayol) 

हेनरी फेयॉल ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर शैक्षिक प्रशासन के निम्नलिखित कार्य बताऐ है -

(1) योजना करना (Planning)

(2) व्यवस्था करना (Organization)

(3) निर्देशन देना (Directing)

(4) समन्वय करना (Co-ordinating)

(5) नियन्त्रण करना (Controlling) 


[VI] जॉन रेम्सेयर के अनुसार शिक्षा प्रशासन सम्बन्धी कार्य ( Functions related to Educational Administration according to John Ramsey)

(1) उद्देश्यों या लक्ष्यों का निर्धारण करना 

(2) नीति निर्धारित करना ।

(3) कार्यों का निर्धारण करना ।

(4) विभिन्न कार्यों में समन्वय स्थापित करना ।

(5) शैक्षिक साधनों का समुचित प्रयोग करना ।

(6) विभिन्न मसालों पर विचार-विमर्श करना।

(7) नेतृत्व करना ।

(8) सहयोगी स्रोतों को प्राप्त करना ।

(9) प्रभाव का मूल्यांकन करना।


[VII] लूथर गुलिक के अनुसार शैक्षिक प्रशासन के कार्य( Functions of Educational Administration according to Luther Gulick)

लूथर गुलिक (Luther Gulick) ने प्रशासन के सात कार्यों को बताया है—


(1) नियोजन करना (Planning)

(2) व्यवस्था करना (Organization)

(3) कर्मचारी नियुक्तिकरण ( Staffing)

(4) संचालन (Governing)

(5) समन्वयीकरण (Co-ordination)

(6) रिपोर्ट लिखना (Reporting)

(7) बजट बनाना (Budgeting)


शिक्षा प्रशासन के प्रमुख कार्य (Main Functions of Educational Administration and Management)


1- उत्तम शैक्षिक व्यवस्था करना

2- नीतियों एवं नीतियों का निर्धारण

3- सहायक सेवाओं की व्यवस्था करना

4- सभी शैक्षणिक संस्थाओं का विधि पूर्वक संचालन करना

5-  शैक्षिक योजनाओं को बनाना

6- कर्मचारियों का प्रबंध करना

7- संचालन करना

8- शैक्षिक वित्तीय व्यवस्था करना

9- पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण करना

10- परीक्षाओं की व्यवस्था करना

11- समायोजन या समन्वय स्थापित करना

12- आलेखों का अनुरक्षण

शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Educational Management), उद्देश्य (Objectives), प्रकृति (Nature), विशेषताएँ (Characteristics)

 शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता एवं महत्व 

(Need and Importance of Educational Management)


शिक्षा का स्वरूप निर्धारण करने में किसी देश की शासन-प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है और यह सत्य है कि प्रचलित शैक्षिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का आधार होती है। जनतन्त्र में शैक्षिक प्रणाली का सही रूप प्रस्तुत करने में शैक्षिक प्रबन्धन मुख्य होता है, इसके आधार पर ही जनतान्त्रिक मूल्यों का प्राप्त किया जा सकता है। इन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए हम शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता एवं महत्व को निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं--


(1) शैक्षिक संस्था अथवा संगठन को सदृढ़ बनाना

आवश्यक संसाधनों की पूर्ति करके संगठन का विकास करने एवं वित्तीय स्रोतों की जानकारी प्राप्त कर निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।

(2) संस्था के हितों के अनुरूप मानवीय व भौतिक संसाधनों की व्यवस्था करना –

आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करने, साधनों का अधिकतम उपयोग करने और संसाधनों को अपव्यय से बचाने में शैक्षिक प्रबन्धन की भूमिका अति आवश्यक एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

(3) संस्था अथवा संगठन के कार्यों को आगे बढ़ाना– कर्मचारियों से अपनी नीतियों एवं रीतियों से अधिक कार्य कराने में तथा उनमें दृढ़ निश्चय, मनोबल, आत्मविश्वास एवं साहस बढ़ाने में शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। इस कार्य की पूर्ति में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

(4) शैक्षिक प्रक्रिया को व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी बनाना —

 बालक के व्यक्तित्व के विकास - (शरीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि) करने तथा शिक्षा पर नियन्त्रण रखने के लिए शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता है। इस दृष्टि से इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।


(5) शिक्षा से सम्बन्धित योजना निर्माण कराना, उन्हें क्रियान्वित करके उनका मूल्यांकन करना –

 शिक्षा के निर्धारित मूल्य, उद्देश्य एवं आदशों को प्राप्त करने तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बनाने के लिए शैक्षिक प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।


(6) बदलती परिस्थितियों में शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षा में समन्वय स्थापित करना –

सभी को समान रूप से शिक्षा उपलब्ध कराने तथा शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण अधिकारी एवं शिक्षकों, प्रचायों को उचित निर्देशन देने के लिए शैक्षिक प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से इसकी भूमिका अति महत्वपूर्ण है।


(7) विद्यालय में एक ऐसा वातावरण निर्मित करना जो मनोवैज्ञानिक हो –

वातावरण ताल-मेल को बढ़ावा देने वाला हो, कार्यों को सुगम और सरल बनाने वाला हो और शिक्षा के सभी स्त (प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक आदि) में समन्वय स्थापित करने वाला हो। अतः ऐसा प्रबन्धन जो की गुणवत्ता में वृद्धि करने और न्यूनतम साधनों से अधिकतम (श्रेष्ठतम परिणाम करने के लिए शैक्षिक प्रक की आवश्यकता है। इस दृष्टि से इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।


अतः स्पष्ट है कि शैक्षिक प्रबन्धन के द्वारा पाठ्यक्रम को उचित रूप में संचालित किया जा सकता है। नवीन शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग सरलतापूर्वक किया जा सकता है, व्यक्तिगत भिन्नता के आधार उसकी क्षमता और योग्यता का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है तथा अन्य विविध शैक्षिक कार्यों के शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता है। इस दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है।


शैक्षिक प्रबन्धन के उद्देश्य
(Objectives of Educational Management)


शैक्षिक प्रबन्धन किसी संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करता है। वह इसके लिए ने प्रदान करता है, परामर्श देता है और निर्देशन प्रदान करता है। प्रशासन द्वारा निर्धारित नीतियों को वाल रूप में प्रबन्धन लागू करता है। प्रबन्धन एक बड़ी सामाजिक क्रिया है इसे संगठन के प्रभावशाली और अत्या नियोजन के लिए उत्तरदायी माना जाता है। इसकी क्रियाओं में निर्णय का आयोजन, उसे लागू करना और कर्मचारियों को निर्देशन देना है। शैक्षिक विकास को ध्यान में रखकर शैक्षिक प्रबन्धन के उद्देश्यों को हम निम्नलिखित रूप समझ सकते हैं-


(1) योग्य एवं कुशल नागरिक तैयार करना

(2) बालक में निहित विभिन्न शक्तियों का विकास करना


(3) शैक्षिक कार्यक्रमों एवं अन्य गतिविधियों का संचालन करना


(4) कर्मचारियों की सेवाएँ एवं प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करना


(5) शैक्षिक संस्थाओं का निरीक्षण, पर्यवेक्षण कराना एवं निर्देशन देना

(6) वित्त की व्यवस्था करना


(7) शैक्षिक नीतियों और योजनाओं तथा शिक्षा की प्रगति से अवगत कराना 


अतः स्पष्ट है कि शैक्षिक प्रबन्धन के उद्देश्य छात्र, शिक्षक, अभिभावक, समाज और सम्बन्धित कार्मिक उस को संस्था के विकास की दृष्टि से आवश्यकतानुसार उपयुक्त सामग्री एवं सुविधाएँ उपलब्ध करके कम-से-कम पर अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। अतः शैक्षिक प्रबन्धन द्वारा लक्ष्यों को स्पष्ट करना चाहिए, निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में आने वाली बाधाओं को स्पष्ट करना चाहिए और उनके समाधान का भी स्पष्ट संकेत होना चाहिए। प्रबन्धन प्रक्रिया में विचार-विमर्श को भी स्थान होना चाहिए। उद्देश्य की दृष्टि से माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission 1952-53) का मत है- "भारत ने राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने बाद अपने को गणतन्त्र घोषित किया है, इसलिए भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिससे इस प्रकार चरित्र निर्माण हो सके तथा ऐसा व्यवहार विकसित हो सके कि प्रत्येक नागरिक अपने उत्तरदायित्व को निभा सके।"


शैक्षिक प्रबन्धन की प्रकृति
(Nature of Educational Management)


शैक्षिक प्रबन्धन की प्रकृति के विषय में हम निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं-

 (i) शैक्षिक प्रबन्धन की प्रकृति को दोनों रूपों में स्वीकार किया जाता है। यह कला भी है, विज्ञान भी है, यह न केवल कला है न केवल विज्ञान है अपितु यह कला और विज्ञान दोनों है।

 (ii) शैक्षिक प्रबन्धन एक प्रक्रिया है; उदाहरणार्थ- बच्चों की रुचि पुस्तकालय के प्रति बढ़ानी है सबसे पहले ऐसा वातावरण तैयार करना होगा उसके बाद छात्रों को नियमित अध्ययन के लिए प्रेरित करना होगा और फिर निर्देशित करने की प्रक्रिया पूर्ण करनी होगी ।

(iii) शैक्षिक प्रबन्धन को जन्मजात प्रतिभा माना जाता है, किन्तु आज इसे विद्वान अर्जित प्रतिमा रूप में स्वीकार करते हैं। 

(iv) शैक्षिक प्रबन्धन को एक सामाजिक उत्तरदायित्व माना जाता है। इसका समाज के प्रति उत्तरदायित्व है, उसे पूरा करने के पश्चात् ही इसकी उपयोगिता सिद्ध होती है।

(v) शैक्षिक प्रबन्धन को व्यावहारिक विज्ञान के रूप में माना जाता है। वर्तमान में यह एक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है। 

(vi) शैक्षिक प्रबन्धन एक प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है। अतः यह प्रणाली के अंग-अदा, प्रक्रिय और प्रदा के रूप में विकास कर रहा है। यह स्वतंत्र अनुशासन के रूप में विकसित हुआ है।

 (vii) शैक्षिक प्रबन्धन सार्वभौम है अर्थात् इसकी व्यापकता किसी एक (Secondary Education Commission 1952-53) का मत है- "भारत ने राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने बाद अपने को गणतन्त्र घोषित किया है, इसलिए भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिससे इस प्रकार चरित्र निर्माण हो सके तथा ऐसा व्यवहार विकसित हो सके कि प्रत्येक नागरिक अपने उत्तरदायित्व को निभा सके।


शैक्षिक प्रबन्धन की विशेषताएँ

(Characteristics of Educational Management) 


शैक्षिक प्रबन्धन की विशेषताओं को हम निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं-


(i) शैक्षिक प्रबन्धन एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज के अभाव में प्रक्रिया की सफलता अपन कठिन कार्य है।


(ii) शैक्षिक प्रबन्धन उद्देश्यपूर्ण होता है। उद्देश्य की पूर्णता इससे सफल बनाती है।


(iii) शैक्षिक प्रबन्धन संगठन की आवश्यकता है। इसके अभाव में संगठन को सफलता संदिग्ध रहती है


(iv) शैक्षिक प्रबन्धन किसी एक व्यक्ति का प्रयास नहीं है यह तो सामूहिक प्रयासों का प्रतिफल होता है 


(v) शैक्षिक प्रबन्धन की आवश्यकता किसी एक स्तर पर ही नहीं होती बल्कि यह तो प्रत्येक पर आवश्यक होती है।


(vi) शैक्षिक प्रबन्धन न केवल कला है, न केवल विज्ञान है अपितु यह कला एवं विज्ञान दोनों है। 


(vii) शैक्षिक प्रबन्धन एक विशिष्ट प्रक्रिया है। इसके द्वारा मानवीय एवं भौतिक साधनों में समन्त स्थापित करके कम-से-कम व्यय में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करना ही इसकी विशेषता है




प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकृति| शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ, शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा, परिभाषाएँ, सामान्य विशेषताएँ

 प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Management) 

प्रबन्ध एक व्यापक एवं जटिल शब्द है। यह इतना व्यापक है कि इसे आधुनिक औद्योगिक जगत में कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है। प्रबन्ध की विचारधारा इतनी जटिल है कि, प्रायः विद्वान इसे अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और उद्देश्य के संदर्भ में काम चलाऊ आधार पर परिभाषित करते हैं। विभिन्न विद्वानों एवं लेखकों ने प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए उसकी परिभाषा को अपने-अपने तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसीलिए इसको कोई सर्वग्राह्म तथा सर्वमान्य परिभाषा आज तक नहीं बन पाई है। सकीर्ण अर्थ में, सर चार्ल्स रेनोल्ड के अनुसार, प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है। इस दृष्टि से प्रबन्ध का आशय समुदाय के एक अधिकरण द्वारा अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने से लिया गया है।


विस्तृत अर्थ में, जार्ज आर. टेरी के अनुसार, प्रबन्ध से आशय उस कला तथा विज्ञान से लिया गया है, जो कार्यकुशल तरीके से एक व्यवसाय के उद्देश्यों को प्राप्ति में योगदान करता है। इस अर्थ में, एक संस्था तथा उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों के संगठन, निर्देशन, नेतृत्व एवं नियन्त्रण के कार्यों को प्रबन्ध को संज्ञा दी गई है है


इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति प्रबन्ध को सामाजिक प्रयासों को व्यवस्था मानते हैं। इनका कहना है कि जब संस्था में एक से अधिक व्यक्ति कार्य करते हैं तभी उनके कार्यों का नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियन्त्रण करना आवश्यक होता है ताकि संस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। इस प्रकार सामान्य लक्ष्यों को प्राप्ति हेतु सामूहिक प्रयासों का नियोजन संगठन, समन्वय, नियन्त्रण एवं निर्देशन हो प्रबन्ध कहलाता है।


प्रबन्ध की कतिपय प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-


प्रो. आर.सी. डेविस के शब्दों में – “प्रबन्ध कार्यकारी नेतृत्व का कार्य है, यह संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसकी क्रियाओं के आयोजन, संगठन तथा नियन्त्रण का काम है।"


ई. एफ. एल. बेच के अनुसार –"प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी उपक्रम के निर्धारित उद्देश्य अथवा कार्य को पूरा करने के हेतु क्रियाओं का प्रभावपूर्ण आयोजन एवं नियमन करने का उत्तरदायित्व सन्निहित है।""


जी. ई. मिलवर्ड के अनुसार – "प्रबन्ध प्रक्रिया और ऐजेन्सी है जिसके माध्यम से नीतियों का क्रियान्वयन नियोजन, और पर्यवेक्षण किया जाता है।"


जॉर्ज आर. टैरी ने प्रबन्ध परिभाषित करते हुए लिखा है – कि "प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें नियोजन, संगठन, उत्प्रेरण एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं। इनमें से प्रत्येक में कला एवं विज्ञान दोनों का प्रयोग करते हुए पूर्व निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनुवर्तन किया जाता है।"


सी. डब्ल्यू. विलसन के अनुसार –"प्रबन्ध एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानवीय शक्तियों के प्रयोग एवं निर्देशन की प्रक्रिया है।"

जी. ई. मेकफारलैण्ड के अनुसार –"प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक उद्देश्यपूर्ण संगठनों का व्यवस्थित, संतुलित एवं सहकारितापूर्ण मानवीय प्रयासों के द्वारा सृजन करते हैं, निर्देशन करते हैं, बनाए रखते हैं तथा संचालन करते हैं।" 

पीटर एफ. ड्रकर के शब्दों में – "प्रबन्ध एक बहुउद्देशीय तत्व है जो एक व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबंधकों का प्रबन्ध करता है तथा कार्य करने वालों का प्रबन्ध करता है।"


प्रो. जॉन एफ. मी. के मतानुसार – "प्रबन्ध से आशय न्यूनतम प्रयासों द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने की कला से है जिससे कि नियोक्ता एवं नियोक्ति दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि एवं खुशहाली तथा जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवा संभव हो सके।"


प्रबन्धन की विशेषताएँ (Characteristics of Management)

(i) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की कला तथा विज्ञान है।

 (ii) इसमें व्यक्तियों तथा कार्यकर्त्ताओं को समूह में संगठित रूप में कार्य कराया जाता है। सामूहिक क्रियाओं को बढ़ा दिया जाता है।

(iii) प्रबन्धन को कार्य कराने की ज्ञान की एक शाखा अथवा अनुशासन माना जाता है।

(iv) प्रबन्धन में मानवीय तथा भौतिक स्रोतों में समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया है।

(v) प्रबन्धन पर्यावरण को बनाये रखने तथा उसे बनाने का कार्य करता है। (vi) प्रबन्धन को मानव विकास की प्रक्रिया भी मानते हैं।

(vii) प्रबन्धन में निम्नांकित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं—


(a) नियोजन की प्रक्रिया (Planning),

(b) उद्देश्यों का प्रतिपादन (Formulation of Objectives),

(c) व्यवस्था करना (Organization of Tasks)

(d) निर्देशन करना (Instructing the Tasks)

(e) नियुक्तियाँ करना (Appointing Workers)

(f) सम्पादन तथा समन्वय करना (Executing and Coordinating) 

(g) मूल्यांकन तथा नियन्त्रण करना (Evaluation and Controlling )

(h) कार्यकर्त्ताओं को प्रोत्साहित करना (Encouraging) |इन सभी क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं को उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धन में सम्पादित करते हैं।


प्रबन्धन की प्रकृति (Nature of Management)


प्रबन्धन की प्रकृति बदलती रहती है। पहले 'प्रबन्धन' तथा 'स्वामित्व' को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करते थे परन्तु आज तकनीकी एवं औद्योगिक युग में इनके अर्थ एवं प्रकृति भिन्न हैं। प्रबन्धन की प्रकृति इस प्रकार है—


(i) प्रबन्धन एक कला तथा विज्ञान है और एक अध्ययन का क्षेत्र भी है।


(ii) प्रबन्धन एक विकास का साधन तथा अधिकार तंत्र भी है।


(iii) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की सार्वभौमिक प्रक्रिया है।


(iv) प्रबन्धन व्यक्तियों के संगठित समूह से कार्य कराने का एक तंत्र है।


(v) प्रबन्धन एक व्यवसाय/ पेशा है, इसकी अपनी आचार-संहिता है।


(vi) प्रबन्धन पर्यावरण की गुणवत्ता बनाये रखने का कार्य है।


शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ

(Meaning of Educational Management)

आज वैज्ञानिक युग में प्रबन्ध शब्द का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है और शिक्षा के क्षेत्र में तो प्रबन्ध ने क्रांतिकारी परिवर्तन किया है।

शैक्षिक-प्रबन्ध दो शब्दों-संयुक्त है-शैक्षिक (शिक्षा) एक प्रबन्ध (व्यवस्था) अतः शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ हुआ शिक्षा प्रक्रिया की व्यवस्था का प्रबन्ध करना। प्रबन्ध में यह देखा जाता है शिक्षा व्यवस्था से संबंधित कार्य कैसे, कब एवं किस प्रकार से किए जाते हैं। प्रबन्ध में योजना बनाने, निर्णय लेने,व्यवस्था करने कर्मचारियों का चयन करने, उनको प्रशिक्षण देने, आवश्यक साधनों का ज्ञान करवाने नियोजन करने प्रेरणा देने, संगठनात्मक कार्य करने, कार्य का मूल्यांकन करने एवं सुधार करने आदि सभी संबंधित पक्षों का वर्णन होता है। 

"प्रबन्ध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम तरीका क्या है?" एम. डबलू सर


शिक्षण एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल को सेवाएं धन के बदले छात्रों को देता है। इस प्रक्रिया को सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है। विद्यालयी प्रबन्ध में मानव (शिक्षक छात्र) मशीन (विद्यालयी साधन उपकरण) माल (शैक्षिक प्रक्रिया) निष्पत्ति, मुद्रा बाजार (शुल्क) अर्थव्यवस्था तथा मानव शक्ति है।


नियोजक तथा संगठन (प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, छात्र, कर्मचारी, अभिभावक इन सबको गतिशील बनाए रखता है। शैक्षिक प्रबन्ध के प्राचीन एवं आधुनिक अर्थ को समझने के लिए दोनों कालों को शिक्षण व्यवस्थाओं को समझना आवश्यक है।


वैदिक काल में विद्यार्थी गुरुकुलों व आश्रमों में गुरुओं से शिक्षा पाठ करते थे उस समय के शिक्षक वेतनभोगी नहीं होते थे क्योंकि उनका लक्ष्य सेवा एवं स्थान का था। अ उस समय की शिक्षा-व्यवस्था एवं संस्था को शिक्षक व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्राप्त कर स्वयं चलाते थे।


बौद्ध काल में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है


शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा
(Concept of Educational of Management)


मानव द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया किसी न किसी प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है। यह प्रक्रिया इतनी व्यवस्थित होती है कि यदि इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किया जाए। तो उसके परिणामों में परिवर्तन आ जाता है।


वर्तमान शिक्षा की अवधारणा में दो प्रकार के परिवर्तन हुए हैं- (1) शिक्षा, मानव विकास की सशक्त प्रक्रिया के साथ-साथ राष्ट्र विकास एवं जनशक्ति नियोजन का आधार बन गई है। 

(2) यह एक मानवीय व्यवसाय के रूप में विकसित हो रही है। यह व्यवसाय अन्य व्यवसायों से भिन्न है। इसमें शिक्षक, शिक्षा के द्वारा मानव विकास के लिए किए गए श्रम का मूल्य लेता है। यह व्यवसाय, एक मिशन (सेवा कार्य) के रूप में है जिसका सम्पूर्ण लाभ समाज तथा राष्ट्र को मिलता है। शिक्षण व्यवसाय में प्रबन्ध का विशेष महत्व है।


हेने के अनुसार शिक्षा एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल की सेवाएं, धन के बदले छात्रों को देता है। छात्र, शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान तथा कौशल का उपयोग करके अपनी क्षमताओं का विकास करते हैं। शिक्षा एक प्रबन्ध है शिक्षा यद्यपि  जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है।


शिक्षा के क्षेत्र में की गई व्यवस्था ही शैक्षिक प्रबन्ध है शैक्षिक प्रबन्ध एक विशेष क्रिया है। मानव समूह तथा संस्थाओं के संचालन के लिए अर्थात् विद्यालय के कर्मियों तथा विद्यालयी संस्था के संचालन के लिए शैक्षिक प्रबन्ध का होना अत्यन्त आवश्यक है। उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में व्यवस्था की यह प्रक्रिया "प्रबन्ध" कहलाती है और शिक्षा के क्षेत्र में यह प्रक्रिया “ प्रशासन" कहलाती है। प्रशासन में व्यक्ति अपने पद के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। प्रचलित अवस्था में "प्रबन्ध" शब्द उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। 

में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है 

शैक्षिक प्रबन्धन की परिभाषाएँ
(Definitions of Educational Management)


शैक्षिक प्रबन्ध के विषय में अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी राय दी है, कुछ विद्वानों के कथनों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-


गैंड तथा शर्मा - (Gande and Sharma ) - " शैक्षिक व्यवस्थापन एक बहुत व्यापक अर्थ वाला विषय है। यद्यपि विद्यालय व्यवस्था शैक्षिक व्यवस्थापन के अन्तर्गत ही एक विषय है परन्तु आमतौर पर शैक्षिक व्यवस्थापन से हम शिक्षा की नीतियों का निर्धारण, उनका संचालन और उनका मूल्यांकन आदि विषयों का ही बोध पाते हैं। शिक्षा व्यवस्थापन के अन्तर्गत शिक्षा की योजना बनाना, उसके लिए उचित व्यवस्था करना, उसका संचालन करना, नीति और साधनों का समायोजन करना तथा नियंत्रण एवं मूल्यांकन करना ये पांच तत्व आते हैं। यद्यपि ये पांचों तत्व एक दूसरे से बंधे हुए हैं तथापि उनका कुछ अंश तक पृथक-पृथक क्षेत्र है।"


कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार – "भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं के निर्मित हो रहा है।" उक्त शब्दों में गणतंत्र के लिए योग्य नागरिक तैयार करने में शिक्षण संस्थाओं के कुशल प्रबन्ध का महत्व स्वीकार किया है जिसके द्वारा विद्यालयों में अनुकूल वातावरण निर्मित कर 'शैक्षिक उद्देश्यों की सम्प्राति' करने में सहायता मिलती है। किसी विद्यालय की सफलता उसके 'प्रबन्ध' और 'व्यवस्था' पर निर्भर है। अतः लाभकारी एवं प्रभावपूर्ण शिक्षा के लिए 'विद्यालय प्रबन्ध' या संगठन अपना आवश्यक है।"


किम्बाल एवं किम्बाल— "प्रबन्धन उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उद्योग में मनुष्य में और माल को नियन्त्रित करने के लिये चालू आर्थिक सिद्धान्त को प्रयोग में लाया जाता है।"


कुन्दज- 'औपचारिक समूहों में संगठित लोगों से काम कराने की कला का नाम से है।"


शिक्षा प्रबन्धन की सामान्य विशेषताएँ
(Characteristics of Educational Management


शैक्षिक प्रबन्ध की विशेषताएं या आयाम इस प्रकार हैं-


(1 ) नियोजन व्यवस्था- शैक्षिक प्रबन्ध की सबसे प्रमुख विशेषता नियोजित व्यवस्था है। विद्यालय में सम्पूर्ण व्यवस्था पूर्ण नियोजित होती है अन्य शब्दों में सारे कार्य क्रमबद्ध एवं नियोजित तरीके से किए जाते हैं। यह शैक्षिक प्रबन्ध की ही नहीं बल्कि सभी प्रबन्धों की महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है।


(2) Educational management is a coordinating resource-

शैक्षिक प्रबन्ध, शिक्षा के विभिन्न साधनों में समन्वय करता है तथा एकीकरण के द्वारा वह शिक्षा की प्रक्रिया को सफल बनाता है। इसमें छात्र-छात्राएं, शिक्षकों आदि से संबंधित व्यवस्थाएं होती हैं।


(3) शैक्षिक प्रबन्ध एक समूहवाचक संज्ञा है - इसमें एक व्यक्ति या संस्था निहित नहीं होते हैं। शैक्षिक प्रबन्ध में समूह निहित होते हैं, जो अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। प्रबन्ध एक जटिल अर्थ वाली प्रक्रिया है, इसका सम्बन्ध अधिकारियों से है। यह एक विज्ञान है और साथ ही एक प्रक्रिया भी है, प्रबन्ध में अधीनस्थों से काम कराया जाता है।


(4) प्रबन्ध एक सामाजिक क्रिया है-लारेन्स एप्पले के अनुसार-प्रबन्ध, व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन, प्रबन्ध वास्तव में कर्मचारी प्रशासन हैं, विद्यालयों में इसीलिए अनेक व्यक्ति अनेक प्रकार के कार्य करते हैं जो विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का सृजन करते हैं।


(5) शैक्षिक प्रबन्ध एक अदृश्य कौशल है यह कोई दिखाई देने वाला तत्व नहीं है। यह तो ऐसा कौशल है, जिसे उसके परिणाम से जाना जाता है। किसी विद्यालय में लोग अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए इसलिए लालायित रहते हैं कि वहाँ का परिणाम उत्तम रहता है। परिणाम का उत्तम रहना, उत्तम प्रबन्ध कौशल पर निर्भर करता है ।

(6)  मूलरूप से किया है-शैक्षिक प्रबन्ध मूलरूप से यह क्रिया है, जो कार्य को सम्पादन कराती है। इसका सम्बन्ध मानवीय सम्बन्ध, भौतिक संसाधन तथा पति से होता है।


(7) एक सार्वभौमिक क्रिया है- शैक्षिक प्रबन्ध किसी भी कार्य को दिशा देने में सदा सहयोगी रहा है और यह सार्वभौम है। नियोजन, संगठन, नियंत्रण तथा निर्देशन आदि सभी सार्वभौमिक प्रकृति के कार्य है। प्रबन्ध का कार्य प्रबन्धक को करना पड़ता है।


(ङ) प्रबन्ध एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है-शैक्षिक प्रबन्ध किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। बच्चों को शिक्षा देने के उद्देश्यों से स्थान, सामान, कर्मचारियों, उपकरणों की व्यवस्था की जाती है। इनका सबका (सबका उद्देश्य लक्ष्य प्राप्त करना है।


( 9 ) प्रबन्ध का दीचि काम कराना है- यह स्वयं कार्य न करके कार्य कराता है। प्रधानाचार्य स्वयं बहुत कम पढ़ाते हैं किन्तु प्रत्येक शिक्षक से कार्य लेते हैं, और गैर- शैक्षिक कर्मचारियों द्वारा शैक्षिक सुविधाएं जुटाने एवं वातावरण का निर्माण कराने में सहयोग लेते हैं।


(10) अनवरत् चलने वाली प्रक्रिया- इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि यह अनवरत रूप से चलती रहती है। इसमें योजना, निर्णय करने, संगठन, निर्देशन, समन्वय आदि के बारे में निरन्तर कार्य किए जाते रहते हैं। उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त शैक्षिक प्रबन्ध की अन्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-


(12) इसका सम्बन्ध प्रबंधक या प्रशासक की नीतियों को क्रियान्वित करने से है। यह संगठन का पृथक अंग है। इसमें वे सभी व्यक्ति तथा कार्य आते हैं जो उद्देश्य प्राप्ति के लिए क्रियाशील होते हैं।


इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रबंध वह शक्ति है, जो संगठन में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नेतृत्व प्रदान करती है तथा सभी का मार्गदर्शन करती है।

October 01, 2023

Preparation of Blue Print of Achievement Test Or Construction of Achievement Test

 Preparation of Blue Print of Achievement Test Or Construction of Achievement Test


Preparation of Blue Print of achievement test is very important for examination in English because it consists of objective type of questions indicating the number of items in each cell. It is prepared in accordance with objectives of teachings, subject-matter in curriculum and types of questions by determining quantitative weightage and organizing the questions in three dimensional chart. This is known as blue print of test. While constructing the achievement test, based on blue print, the following things should be kept in mind


(i) Individual differences.


(ii) Questions should be balanced.


(iii) Results should be same.


(iv) Language in the scoring key should be easy.


(v) Maximum children should be able to attempt it.


Steps in Preparation of Blue Print


Step-1-Instructional Objectives: The objective is to test the knowledge, understanding, application and skill of the students. In languages, the major objectives are categorized as knowledge, comprehension and expression.


Step-2-Design: It specifies weightages to:

(a) Weightage of Teaching Objectives: Generally, test should be for the fulfillment of all objectives of teaching. So prior to the preparation of the test all the required weightage on objectives of teachings should be determined:



(b) Weightage to Content Units: While preparing blue print of achievement test, it is necessary to cover, entire subject-matter so it becomes essential to determine weightage, keeping in view the extension of different subject-matter, and the importance pertaining to the subject-matter. If the topics in subject-matter are large in number, then it will be convenient to classify the topics into units.


Weightage to content units




(c) Weightage to the Different Forms of Questions: After determining marks on objectives and content unit, it is essential to pay attention on the types of questions for test. So it should also be determined as to how many of the questions of each type (essay type/short answer objectives) are to be prescribed and what weightage should be laid on them.




(d) Weightage to Difficulty Level: It should also be noted that the level of the questions should neither be very difficult nor very easy. The questions level should grow from easy to difficult gradually. They should be divided into three levels. Easy questions should be at first, average questions in middle and difficult questions in the last. According to difficulty level, weightage can be determined.


Step-III-Blue Print: A blue print is a distribution of the weightage that various aspects of English should have in a test specially constructed for it. It is a pre-requisite at the planning stage. It helps to guide a teacher in constructing a test. It indicates the weightage to be given to various skills and the types of test.


Blue Print of English I paper of class X for the Examination of Board of Secondary Education




Audio-Visual Aids In The Teaching Of English

AUDIO-VISUAL AIDS IN THE TEACHING OF ENGLISH


In teaching, the teacher conveys some concepts to students When to convey the concepts more efficiently and successfully to students, the help of some verbal-visual material things is taken, those things are called audio-visual aids. The rationale is to appeal to eyes and ears of pupils and make the learning easy as well as permanent. It is the era of audio-visual aids in Education. Prof. C. S. Bhandari opines, "Our aim of teaching English is to import certain skills without making the process of teaching and learning monotonous." Here audio-visual aids come as rescue. Although a teacher is the best audio-visual aid, he does need some other audio- visual aids to supplement him. These aids help him in imparting good instruction. F. W. Noel is right when he says, "Good instruction is the foundation of any educational programme. Audio- visual training aids are a component part of that foundation." Hence, an English teacher should know about the various audio-visual aids he can use successfully in teaching English.


Types of Audio-Visual Aids :


The different types of audio-visual aids can put into three categories:


(a) Audio Aids: All those materials which function as aids by appealing to the ears only are called audio aids. They are usually used to form speech habit. 


The following are the main audio aids :

1. Gramophone, Linguaphone and Headphone

2. Tape-recorder.

3. Radio


(b) Visual Aids: Material aids which appeal only to eyes are called visual aids. Some visual aids are:


4. Text-book

5. Black-board.

6. Flannel-board

7. Flash-cards

8. Pictures

9. Charts maps. figures and models

10. Slides and films strips.

11. Epidiascope.


(c) Audio-Visual Aids: These are the aids which appeal to both ears and eyes. These aids are expensive. The following are included in it:


12. Film

13. Television


The use of all these aids in teaching English is described in the following lines


1. Gramophone, Linguaphone and Headphone: 

These aids are very useful in teaching students to speak English and correct pronunciation. The linguaphones assist in learning English sounds. Gramophones and linguaphones are cheaper than other audio aids. In them, records are available with booklets. They repeat speech patterns with correct pronunciation, intonation etc. over and over again. The material is carefully selected and graded. One record is worth three complete lessons. Linguaphones are also used to teach grammatical structure, poetry, usage, etc. Such records can be available from the English Language Teaching Institute, Allahabad. The English teacher should know the technique of stopping and restarting the records. The headphones solve the problem of dealing with individual students. With this he can attend each student.


2. Tape-recorder: 

It is a costly aid. It records the words uttered by a speaker. Those words can be reproduced later on as many times as desired. In teaching English, it can be used for the following purposes :-

(a) Speech-correction.

(b) Reading a talk, story, play, poetry, pronunciation of different word, etc.

(c) Reading improvement

(d) Musical appriciation.

(e) Sound knowledge.

(f) Teacher's comments on film strips and slides etc.


Tape-recorders should be used for well selected material and it should be presented stage by stage. But the teacher must know that by writing them off and on, he can spoil the effect. Pointing towards the importance of gramophone and tape-recorder, S. R. Ingram has said, "If used intelligently, the gramophone and the tape-recorder can help the teacher to provide a wider range of linguistic experience, variety in material and style and a real stimulus to individual effort."


3. Radio: 

Radio is a useful aid in language learning, since comprehensive courses in language learning are presented by radio. It can prove more useful by:


(i) The co-operation between educational and broadcasting authorities.

(ii) Recording radio broadcasts.

(iii) Making the broadcasting programme known to pupils

(iv) Adjusting the periods of English with the broadcast.


The following are the merits of radio as an aid :-


(i) It helps in developing comprehension by listening.

(ii) It gives the correct spoken language.

(iii) It presents the lectures of outstanding speakers.

(iv) It can be used inside as well as outside the class-room.

(v) It is cheaper.


But the following are the main demerits of radio :-


(i) Repetition is not possible.

(ii) Adjustment between English periods and broadcasting time becomes very difficult.

(iii) Children sometimes find it uninteresting due to impersonal touch.


4. Text-book: 

It is an aid as well as a method. In olden days, too, books served as aids. These days, text-books are according to the curriculum prescribed for a class. A text book should have the following qualities:-


(i) The subject-matter should be based on students' liking and interest. 

(ii) The matter should be graded properly.

(iii) The subject-matter should be practical. 

(iv) Books should be attractive and illustrative.

(v) These should cover the objectives of teaching English. 

(vi) At the end, sufficient exercises should be given

(vii) They should be well printed but not costly.


5. Black-board: 

It is the cheapest aid which can be handled easily. Almost in every school, in every class, there are black-boards. They are of different types such as wall, standing, reversible. The boards should be in light green colour which, soothes eyes. This aid can be used for the following purposes in English teaching :-


(i) For exposition and explanation of words.

(ii) For teaching structures.

(iii) For teaching grammatical forms.

(iv) For teaching writing.

(v) For writing sentences, answers and compositions.

(vi) For drawing figures and pictures.

(vii) Finally, for testing.


The teacher should follow the following suggestions in order to make the black-board a useful aid -


(i) The board should be put in a correct place. Every student of the class should be in a position to see it.

(ii) The teacher should write in straight lines with agreeable space

(iii) Coloured chalks should be used for drawing sketches and pictures

(iv) The black-board writing should be legible.

(v) While writing on the board, some attention should be given to the class

(vi) The board should be cleaned before leaving the class.

(vii) Too much use should be avoided.


6. Flannel-board: 

It is also called a flannelgraph or felt-board. It can be made easily A board of plywood is covered with flannel or felt. The board should be 60 cm x 90 cm. Figures, pictures, pieces of papers etc. with sand paper on their backs can be stuck to it. They can be easily removed. It can be used for:


(i) Teaching reading.

(ii) Teaching story

(iii) Teaching word and sentence

(iv) Teaching oral composition.


As the teaching proceeds, pictures, figures, words and sentences written on pieces of paper are demonstrated by the teacher one by one on the flannel-board.


7. Flash-cards: 

Flash-cards are like playing-cards or post- cards. They can be 15 inches long and 2 or 3 inches wide. They are made of soft thick papers. On them, pictures are made with illustrative words or sentences written below them. They can also help in mastering correct word order and speech habits.


8. Pictures: 

These are widely used and are very useful aids in teaching English. There is an old Chinese saying, "A picture is worth ten thousand words." According to Ruskin, "A room without pictures is like a house without windows." In teaching English, pictures of schools, shop, market, fair, railway station, post-office, river, mountain, man, boys, girls, festivals and picturesque scenes can be shown to the class for teaching: 

(i) vocabulary 

(ii) structures 

(iii) com- position and 

(iv) dramatization. 


Pictures can be of these kinds :


(a) Picture-postcards

(b) Snap-shots

(c) Cutouts from newspapers and periodicals and

(d) Wall pictures.


Advantages of Pictures Some of various advantages of pictures in English teaching are as follows:


(i) They are useful in Direct Method. Pupils can easily form an association between the word and its meaning.


(ii) The help in developing aesthetic sense.


(iii) They also help in developing observation and imagining powers of students


(iv) They are the means of giving concrete form to abstract things.


(V) They are based on psychological principle of interest,


Some Suggestions

Following are some suggestions to make pictures more useful as a teaching aid


(i) They should not be overused.

(ii) They should be put at a place from where pupil can see them.

(iii) Pictures should be bright and colourful.

(iv) They should be clear contrast of light, colour and out- line with a lot of life and movement in the scenes.

(v) They should have a clear bearing over the lesson.


9. Figures, Charts, Maps, and Models: 

Within figures come sketches and diagrams Figures and charts are valuable aids. They are neither costly nor difficult to handle. The teacher can draw them on the board or on paper. They supplement the work of pictures. Things which cannot be taught with pictures and are not clear through a picture can be taught by figures and charts Vocabulary, grammar, stories, sentence structures can be taught through them. Maps can be used in teaching about cities, countries, rivers, mountains, oceans, seas, etc. Models are used to give an illusion of reality. They are made of clay, plastic, cardboard, paper, rubber word etc. They can facilitate Direct Method According to F. G French, "We can use the models for telling stories, for conversation. and for making the abstract language feel."


10. Slides and Filmstrips Slides and filmstrips are other useful aids for showing objects and actions. Slides are single, whereas filmstrips exhibit a series in a compact and economical form.  They can prove efficient in teaching (1) sentence structure (i) oral and written composition of life, society and culture of peoples of different countries and (iv) stories. The educational slides are available from the Directorate of Extension, Programmes for Secondary Education, New Delhi and foreign embassies. 


11. Epidiascope: 

It is an easily operating apparatus which projects the enlarged images of objects whether opaque or not by reflection on to a screen or wall. It can be used for 


(i) teaching composition, calligraphy, structures, story,

(ii) revising lesson and

(iii) projecting maps, pictures, figures charts, pages from book, extracts, solid objects.


Its advantages are:


(i) There is no need of enlarging pictures, etc

(ii) Small pictures can be easily stored than large ones

(iii) Teaching becomes interesting.


12. Film: 

Film is an expensive but very useful aid. It appeals not only to eyes cars, but also emotions. A film is full of colour, movement and new ideas. For educational purpose, they can be used for:


(i) to teach phonetics and pronunciation,

(ii) to show English stories, plays and novels,

(iii) to acquaint pupils with the life, custom and culture of different countries,

(iv) to acquaint them with wild life and

(v) to teach them through the lives of great people.


13. Television: 

Television is an expensive aid. It appeals to both ears and eyes. It has all the advantages of a radio plus the advantages of visual pictures. It is available only at some privileged schools these days. It can be used for all those purpose in English teaching for which a radio is used.


Advantages of Audio-Visual Aids :


(i) They create interest for learning in students.

(ii) They are time saving, because they explain the idea easily and precisely.

(iii) By their use, the burden of the teacher is reduced.

(iv) The teacher can improve his own English by aural aids, students.

(v) They are the sources of a variety of experiences for

(vi) They are bases of Direct Method.

(vii) English is a difficult language. Audio-visual aids make learning English easy.

(viii) A good English teaching is possible only in a English environment. Audio-visual aids help in creating that type of environment


Limitations of Audio-Visual Aids 


(i) Some aids such as television are costly and cannot be afforded by many schools.

(ii) They give an impersonal effect which is not mach effective

(iii) The teachers are required to know the technical skill handle them.

(iv) Some teachers overuse them.


Some Suggestions:


(i) They should be used only where they are needed. Overuse should always be avoided.

(ii) Teachers should use the cheaper ands efficiently, if y ones cannot be procured.

(iii) When the purpose is fulfilled, they should be removal. 

(iv) They should be according to the age and harmonal development of students,

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