June 02, 2022

अभिवृद्धि एवं विकास



अभिवृद्धि एवं विकास 


अभिवृद्दि एवं विकास की प्रक्रिया का शिक्षा से गहन सम्बन्ध है। यही कारण है से कि मनोविज्ञान के अन्तर्गत, अभिवृद्धि एवं विकास के अध्ययन को सम्मिलित किया गया है। इस अध्ययन के आधार पर यह विदित होता है कि व्यक्ति की अभिवृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन-से है। इन कारकों को ध्यान में रखकर ही यह सम्भव हो पाता है। कि शिक्षार्थियों को विकास पथ पर प्रशस्त करने वाली व्यूह रचना का समुचित रूप से निर्धारण किया जाये।


अभिवृद्धि का अर्थ


व्यक्ति की शैशव अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक, शरीर के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन के साथ-साथ की लम्बाई, चौड़ाई तथा भार भी परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति के शरीर की रचना में परिवर्तन होने के सर्वप्रमुख कारण, बाह्य वातावरण से अन्तः क्रिया करना है। व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं का निर्माण एवं विघटन, सामाजिक वातावरण भोजन तथा जलवायु इत्यादि के प्रभाव स्वरूप होता रहता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के शरीर की कभी लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में वृद्धि होती है तो कभी उसका विघटन होता है। व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि को मापा भी जा सकता है। अतः वृद्धि व्यक्ति के शरीर से सम्बन्धित होती है। यदि पूर्व की अपेक्षा व्यक्ति के शरीर की लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में थोड़ी सी भी बढ़ोत्तरी होती है तो उसे वृद्धि कहा जा सकता है। सोरन्सन के शब्दों में- “वृद्धि से आशय शरीर तथा शारीरिक अंगों का भार तथा आकार की दृष्टि से वृद्धि होना है, ऐसी वृद्धि जिसका मापन सम्भव हो।"


विकास का अर्थ

विकास शब्द परिवर्तन का द्योतक है। व्याक्ति में यथा समय होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को विकास कहा जाता है। विकास के अन्तर्गत व्यक्ति में मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है अर्थात् व्यक्ति में होने वाले समस्त परिवर्तनों को विकास कहा जाता है। व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों पर वैयक्तिक भिन्नता का प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के इस विकास की निश्चित दिशा होती है अथवा परिवर्तन एक निर्धारित क्रम की दिशा में होता है। यह विकास कभी अवरूद्ध नहीं होता वरन् शनैः शनैः सतत् रूप में, किसी-न-किसी रूप में परिपक्वता की दिशा में बढ़ता रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की विभिन्न विशेषताओं में विभिन्न गुणात्मक परिवर्तनों के देखा जा सकता है। वृद्धि एवं विकास के उपर्युक्त अर्थ से स्पष्ट होता है कि अभिवृद्धि मुख्य रूप से शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित होती है। शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों का मापन भी किया जा सकता है तथा विकास के अन्तर्गत सामाजिक, सास्कृतिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक एवं संवेगात्मक परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है।


वृद्धि और विकास में अन्तर- एक सामान्य व्यक्ति के लिए वृद्धि और विकास में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता, लेकिन यदि ध्यान से देखा जाये तो वृद्धि और विकास में भी कई अन्तर देखने को मिलते हैं। इन अन्तरों को वर्णन निम्नलिखित हैं -

इस प्रकार हम देखते हैं कि वृद्धि शब्द का प्रयोग संकीर्ण होता है और विकास शब्द का प्रयोग व्यापक दृष्टि से होता है। लेकिन दोनों शब्दों का सम्बन्ध बालक के व्यक्तित्व की उन्नति के साथ ही होता है, इसलिए इन दोनों शब्दों को हम एक-दूसरे के लिये प्रयोग कर लेते हैं। 

वृद्धि व विकास के अन्तर को निम्न प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है --


1. वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तन का प्रतीक है। व्यक्ति के कद, भार, आकार, ऊँचाई आदि में होने वाले परिवर्तनों को वृद्धि कहा जाता है।

 विकास में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ-साथ विकासात्मक परिवर्तन भी सम्मिलित है। व्यक्तित्व के सभी पक्षों में उन्नति के लिये इसका प्रयोग किया जाता है।


2. वृद्धि की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलकर एक निश्चित आयु पर जाकर रूक जाती है अर्थात् शारीरिक परिपक्वता ग्रहण करने के बाद वृद्धि रूक जाती हैं। 

विकास की प्रक्रिया एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है। शारीरिक परिपक्वता ग्रहण करने के बाद भी यह प्रक्रिया चलती रहती है।


3. वृद्धि की प्रक्रिया के फलस्वरूप मनुष्य में होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनको मापा व तोला जा सकता है। 

विकास कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों को व्यक्त करता है। अतः इनको प्रत्यक्ष रूप से मापा नहीं जा सकता लेकिन इनका अनुभव किया जाता है और इनका निरीक्षण किया जा सकता है।


4. वृद्धि की प्रक्रिया विकास की प्रक्रिया का एक अंशमान है। वृद्धि शब्द अत्यन्त सीमित अर्थ लिये हुए हैं। 

विकास शब्द अत्यन्त व्यापक है। यह व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास से सम्बन्धित है। वृद्धि विकास प्रक्रिया

 की ही एक उपक्रिया कही जा सकती है |


अविकास-क्रम में होने वाले परिवर्तन

(Trend of Changes in Development Process)


विकास-क्रम में होने वाले परिवर्तनों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है --


(1) आकार परिवर्तन (Change in Size) - जन्म के बाद ज्यों-ज्यों बालक की = of आयु बढ़ती जाती है, उसके शरीर में परिवर्तन होता जाता है। शरीर के ये परिवर्तन-बाह्य एवं आन्तरिक दोनों अवयवों में होते हैं। शरीर की लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में वृद्धि होती है। आन्तरिक अंग जैसे हृदय, मस्तिष्क, उदर, फेफड़ा आदि का आकार भी बढ़ता है। शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। आयु में वृद्धि के साथ-साथ 30 बालक का शब्दकोष बढ़ता है और स्मरण शक्ति का भी विस्तार होता है।


(2) अंग-प्रत्ययों के अनुपात में परिवर्तन (Proportional Change in Bodily Parts) - बालक एवं वयस्क के अंग-प्रत्यंगों के अनुपात में अन्तर होता है। बाल्यावस्था में हाथ-पैर की अपेक्षा सिर बड़ा होता है, किन्तु किशोरावस्था में आने पर यह अनुपात वयस्कों के समान होता है। इसी प्रकार का अन्तर मानसिक विकास में भी देखने को मिलता है। प्रारम्भ में बालक काल्पनिक जगत में घूमता है, किन्तु किशोरावस्था के बाद वह वास्तविक जगत में आ जाता है। बाल्यावस्था में बालक आत्मकेन्द्रित होता है किन्तु किशोरावस्था में वह विषमलिंगी में रुचि लेने लगता है।


(3) कुछ चिन्हों का लोप (Disappearance of Some Signs) — विकास के साथ ही थाइमस ग्रन्थि, दूध के दाँत आदि का लोप हो जाता है। इसके साथ ही वह बाल-क्रियाओं एवं क्रीड़ाओं को भी त्याग देता है।


(4) नवीन चिह्नों का उदय (Origin of New Signs) — आयु में वृद्धि रहन साथ-साथ बालक में अनेक नवीन शारीरिक एवं मानसिक चिह्न प्रकट होते रहते हैं; उदाहरण के लिए, स्थायी दाँतो का उगना। इसके साथ ही लैंगिक चेतना का भी विकास होता है। - किशोरावस्था में मुँह एवं गुप्तांगों पर बाल उगने प्रारम्भ हो जाते हैं।


अभिवृद्धि व विकास के सिद्धान्त

(Principles of Growth & Development)


(I) समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) - एक के जीवों में विकास का एक क्रम पाया जाता है और विकास की गति का प्रतिमान भी समान रहता है। मानव जाति के विकास पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। गेसेल ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि, “यद्यपि दो व्यक्ति समान नहीं होते हैं, किन्तु सभी सामान्य बालकों में विकास का क्रम समान होता है।" विश्व के सभी भागों में बालकों का गर्भावस्था या जन्म के बाद विकास का क्रम सिर से पैर की ओर होता है। इसी सिद्धान्त की पुष्टि हरलॉक महोदय ने भी की है।


(2) सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Response) - बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर होता है। बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम सामान्य प्रतिक्रिया होती है, उसके बाद वह विशिष्ट रूप धारण करती है। उदाहरण के लिए, प्रारम्भ में बालक किसी वस्तु को पकड़ने के लिए सामान्य अंगों को प्रयोग में लाता है, किन्तु बाद में वह उस वस्तु को पकड़ने के लिए विशिष्ट अंग का प्रयोग करता है। शैशवावस्था में बालक किसी वस्तु को देखकर उसको पकड़ने के लिए हाथ, पैर, मुख, सिर आदि को चलाता है, किन्तु आयु में वृद्धि होने पर वस्तु को पकड़ने के लिए हाथ की प्रतिक्रिया करता है। इसी प्रकार का रूप उसके अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।


(3) सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth) - मानव के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक सतत् रूप में चलता रहता है | विकास की गति कभी तीव्र या कभी मन्द हो सकती है। बालक में गुणों का विकास यकायक नहीं होता है। इनका विकास सतत् रूप में मन्द गति से होता रहता है। इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए बालकों के दाँतों का उदाहरण दिया जा सकता है। लगभग 6 माह की आयु पर शिशु के दूध के दाँत निकलने पर अनुभव होता है कि ये दाँत यकायक प्रकट हुए हैं। वास्तविकत यह कि दाँतों का विकास 5 माह की भ्रूणावस्था से प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु वे जन्म के बाद से 6 माह की आयु में मसूढ़ों से बाहर निकलना प्रारम्भ होते हैं।


(4) परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relationship ) - इस सिद्धान्त से तात्पर्य है कि बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं। एक गुण का विकास जिस प्रकार हो रहा है, अन्य गुण भी उसी अनुपात में विकसित होंगे; उदाहरण के लिए, तीव्र बुद्धि वाले बालक के मानसिक विकास के साथ ही उसका शारीरिक और सामाजिक विकास भी तीव्र गति से होता है। इसके विपरीत मन्द बुद्धि बालकों का शारीरिक एवं सामाजिक विकास भी मन्द होता है |


(5) शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में भिन्नता का सिद्धान (Principle of different rate of Growth of Different Parts of the Body) - शरीर के सभी अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है। इनके विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। यही बात मानसिक विकास पर भी चरितार्थ होती है। शरीर के कुछ अंग तेज गति से विकसित होते हैं और कुछ मन्थर गति से; उदाहरण के लिए, 6 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क विकसित होकर लगभग पूर्ण आकार प्राप्त कर लेता है, जबकि व्यक्ति के हाथ-पैर, नाक-मुँह का विकास किशोरावस्था तक पूरा हो जाता है। यह सिद्धान्त शारीरिक पक्ष के साथ-साथ मानसिक पक्ष भी लागू होता है। बालक में सामान्य बुद्धि का विकास 14 या 15 वर्ष की आयु में पूर्ण हो जाता है, किन्तु तर्क शक्ति मन्द गति के साथ विकसित होती रहती है।


(6) विकास को दशा का सिद्धान्त (Principle of Development Direction) — इसी को केन्द्र परिधि की ओर विकास का सिद्धान्त कहते हैं। इसमें विकास सिर से पैर की ओर एक दिशा के रूप में होता है। बालक का सिर पहले विकसित होता हैं और पैर सबसे बाद में यही बात उसके अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद सर्वप्रथम अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयस है। 9 माह की आयु में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे घिसक कर चलते-चलते  वह पैरों के बल एक वर्ष की आयु में खड़ा हो जाता है।


(7) व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences) - बालकों के विकास के क्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताएं भी अपना प्रभाव दिखाती हैं, इनके प्रभाव के कारण विकास की गति में अन्तर आ जाता है। किसी के विकास की गति तीव्र और किसी की मन्द होती है। अतएव आवश्यक नहीं कि सभी बालक एक निश्चित अवधि पर ही किसी विशिष्ट अवस्था की परिपक्वता प्राप्त कर लें। 


(8) भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Variation) - विकास का क्रम एक समान हो सकता है, किन्तु विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास की गति शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में तीव्र रहती है, किन्तु बाल्यावस्था में मन्द पड़ जाती है। इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं की विकास गति में भी भिन्नता पाई जाती है। 


विकास-सिद्धान्तों का महत्त्व (Importance of Development Principles) - विकास के प्रमुख सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक एवं सामान्य व्यक्ति सभी के लिए महत्वपूर्ण होता है। इनके ज्ञान का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से अधिक है -

विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान से ज्ञात होता है कि बालकों से कब और किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करनी चाहिए। इसके ज्ञान के अभाव में हम बालकों से बहुत अधिक गुणों की अपेक्षा करने लगते हैं या उनको निरर्थक समझने लगते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ बालक के विकास के लिए हितकर नहीं होती हैं। प्रथम स्थिति में बालक में हीनता की भावना आ जाती है और दूसरी स्थिति में उनको विकास के उत्प्रेरक नहीं मिल पाते हैं।

विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान हमको बताता है कि हम कब बालकों के विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करें। इसके ज्ञान से बालकों के यथोचित विकास के लिए अनुकूल वातावरण की रचना की जा सकती है; उदाहरण के लिए, जब बालक चलना या बोलना प्रारम्भ करे तो उसे इसका अभ्यास करवाना चाहिए।

विकास के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ होने के कारण बालकों में कभी-कभी मानसिक तनाव या संघर्ष पैदा हो जाता है जिसके कारण उनमें भावना-ग्रन्थियाँ विकसित हो जाती हैं। शिक्षक एवं माता-पिता बालकों को विकास सम्बन्धी परिवर्तनों का पूर्व ज्ञान देकर उनमें उत्पन्न होने वाले तनाव को कम कर सकते हैं।

इन विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक को विद्यालयों में कियाओं का आयोजन करने में भी सहायक होता है।


मानव-विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(Factors Influencing Growth & Development)


मानव-विकास क्रम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व होते हैं। इन तत्वों द्वारा विकास को गति प्राप्त होती है तथा ये तत्तव विकास को नियन्त्रित भी रखते हैं। यहाँ उन  तत्वों पर संक्षिप्त में विचार करना उपयुक्त होगा।


(1) वंशानुक्रम (Heredity) - बालक का विकास वंशानुक्रम से उपलब्ध गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है। गर्भधारण करने के साथ ही बालक में पैतक कोषों का आरम्भ हो जाता है तथा यहीं से बालक की वृद्धि एवं विकास की सीमाएं सुनिश्चित हो जाती है। ये पैतृक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं। बालक के कद, आकृति, बुद्धि, चरित्र आदि को भी वंशानुक्रम सम्बन्धी विशेषतायें प्रभावित करती हैं | अनुसंधानों के आधार पर देखा गया है कि चरित्रहीन माता-पिता के बालक चरित्रहीन ही होते हैं। 


(2) वातावरण (Environment) -  वातावरण भी बालक के विकास को प्रभावित करने वाला तत्व है। वातावरण के प्रभावस्वरूप व्यक्ति में अनेक विशेषताओं का विकास होता है। शैशवावस्था से ही वातावरण बालक को प्रभावित करने लगता है। बालक के जीवन दर्शन एवं शैली का स्वरूप, स्कूल, समाज, पड़ौस तथा परिवार के प्रभाव के परिणामस्वरूप ही स्पष्ट होता है। शनैः शनैः बालक उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है जिसमें वह अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार वातावरण पर प्रभाव डालने में सक्षम होता है।


(3) बुद्धि (Intelligence) - मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर निश्चित किया है कि कुशाग्रबुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास मन्द बुद्धि वालों की अपेक्षा अधिक तेज गति से होता है। कुशाग्रबुद्धि बालक शीघ्र बोलने एवं चलने लगते हैं। प्रतिभाशाली बालक 11 माह में, सामान्य बुद्धि बालक 16 माह की आयु में और मन्द बुद्धि बालक 24 माह की आयु में बोलना सीखता है।


(4) लिंग (Sex) – बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में लिंग-भेद का प्रभाव भी पड़ता है। जन्म के समय बालकों का आकार बड़ा होता है, किन्तु बाद में बालिकाओं में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है। इसी प्रकार बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालकों से पहले आ जाती है।


(5) अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands) - बालक के शरीर में अनेक अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से विशेष प्रकार के रस का स्राव होता है। यही रस बालक के विकास को प्रभावित करता है। यदि ये ग्रन्थियाँ रस का स्राव ठीक प्रकार से न करें तो बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है; उदाहरण के लिए, गल-ग्रन्थि (Thyroid (Gland) से स्रावित रस थाइरॉक्सिन बालक के कद को प्रभावित करता है। इसके स्रावित न होने पर बालक बौना रह जाता है।


(6) जन्म-क्रम (Birth Order) - बालक के विकास पर परिवार में जन्म-क्रम का प्रभाव भी पड़ता है। अध्ययनों से पता चलता है कि परिवार में जन्म लेने वाले प्रथम बालक की अपेक्षा दूसरे, तीसरे बालक का विकास तेज गति से होता है। इसका कारण यह है कि बाद के बालक अपने से पूर्व जन्में बालकों से अनुकरण द्वारा अनेक बातें शीघ्र सीख लेते हैं।


(7) भयंकर रोग एवं चोट (Serious Diseases and Injuries) — भयंकर रोग एवं चोट बालक के विकास में बाधा पैदा करते हैं। लम्बी बीमारियों के कारण बालक का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार बालक के सिर पर भारी चोट लगने से भी विकास में बाधा पहुँचती है।


(8) पोषाहार (Nutrition) - सन् 1955 में वाटरलू ने अफ्रीका और भारत के चालकों के विकास पर कुपोषण के प्रभाव का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि कुपोषण से बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।


(9) शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Pure Air and Light) - शुद्ध वायु एवं प्रकाश न मिलने पर बालक अनेक रोगों का शिकार बन जाता है और इसके परिणामस्वरूप उसके विकास में अवेधान पैदा हो जाता है।


(10) प्रजाति (Race) - प्रजातीय प्रभाव के कारण बालकों के विकास में विभिन्नताएँ पाई जाती है| अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी यूरोप की अपेक्षा भूमध्यसागरीय बच्चों विकास तेज गति से होता है। 

विकास की अवस्थायें (Stages of Development) 


बाल विकास की अवस्थाएँ




 जब हम शिक्षा के क्षेत्र में मानव विकास की अवस्थाओं पर विचार करते हैं तो हमारा तात्पर्य बाल विकास की अवस्थाओं से होता है क्योंकि शैक्षिक दृष्टिकोण से इन्हीं अवस्थाओं का विशेष महत्व होता है और बालक के भावी जीवन के लिए यही अवस्थाएँ आधार बन जाती है। अतः हम बाल विकास की अवस्थाओं का वर्णन कर रहे हैं --


बाल विकास की अवस्थाएँ


गर्भाधान से लेकर परिपक्व होने तक बालक का क्रमशः विकास होता रहता है। जन्म के उपरान्त बालक के विकास की प्रक्रिया को बाल मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न अवस्थाओं (Stages) में विभाजित किया है। प्रत्येक अवस्था के लक्षण यद्यपि भिन्न-भिन्न होते हैं किन्तु : एक अवस्था के लक्षण अपने से पूर्व वाली अवस्थाओं के लक्षण पर आधारित होते हैं। इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं के मध्य ठीक स्पष्ट रेखा नहीं खींची जा सकता है। विद्वानों ने बाल व विकास के क्रम को समझाने के लिए ही उसे विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित किया है। प्रत्येक अवस्था की अपनी समस्याएँ होती है। अब हम विभिन्न विद्वानों के द्वारा बाल विकास की अवस्थाएँ प्रस्तु करेंगे -


1. रॉस (Ross) के अनुसार


                           1.1 से 3 वर्ष तक                                             शैशव काल                    

                                            2. 3 से 6 वर्ष तक                                            पूर्व-बाल्यकाल

                                            3. 6 से 13 वर्ष तक                                          उत्तर- बाल्यकाल

                                            4. 12 से 18 वर्ष तक                                        किशोरावस्था 


2. अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संस्था के विकासात्मक मनोविज्ञान विभाग सदस्यों के अनुसार


                                          1. जन्म से एक वर्ष तक                          शैशवास्था (Infancy)

                                          2. एक वर्ष से 12 वर्ष तक                           बाल्यावस्था (Childhood)

                                           (i) 1 से 6 वर्ष तक                                    प्रारम्भिक बाल्यावस्था

                                           (ii) 6 से 10 वर्ष तक                                 मध्य बाल्यावस्था

                                           (iii)10 से 12 वर्ष तक                               उत्तर-बाल्यकाल

                                          3.12 से 21 वर्ष तक                                   किशोरावस्था (Adolescence)

                                           (i) 12 से 14 वर्ष तक                                 पूर्व किशोरावस्था

                                           (ii) 14 से 16 वर्ष तक                                 मध्य बाल्यावस्था

                                           (iii) 16 से 21 वर्ष तक                                उत्तर- बाल्यकाल


3. हरलॉक (Hurlock) के अनुसार 


                                 1. गर्भाधान से लेकर जन्म तक                          गर्भावस्था (Pre-natal Stage)

                                 2. जन्म से 12 दिन तक                                      प्रारम्भिक शैशवास्था (Infancy)

                                 3. 14 दिन से 2 वर्ष तक                                      उत्तर शैशवावस्था (Babyhood)

                                 4. 2 वर्ष से 11 वर्ष तक                                        बाल्यावस्था (Childhood)

                                 5. 11 वर्ष से 21 वर्ष तक                                      किशोरावस्था (Adolescence) 

                                 (i) 11 वर्ष से 13 वर्ष तक                                      पूर्व किशोरावस्था (Pre- Adolescence)

                                 (ii)13 से 17 वर्ष तक                                            प्रारम्भिक किशोरावस्था                                                                                                                                     (Early  Adolescence)

                                  (iii) 17 से 21 वर्ष तक                                     उत्तर किशोरावस्था (Late Adolescence)

 

बाल विकास की अवस्थाओं के उपर्युक्त विभाजन में हरलॉक (Hurlock) द्वारा किया गया विभाजन बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसमें गर्भाधान conception) से लेकर परिपक्वता आने तक की अवस्थाओं का समावेश किया है। अन्य विद्वानो ने गर्भावस्था को अपने विभाजन में सम्मिलित नहीं किया है। अब हम बाल विकास की नवस्थाओं की संक्षेप में जानकारी प्राप्त करने की लिए हरलॉक द्वारा प्रस्तुत की हुई अवस्थाओं पर प्रकाश डालेंगे ー


1. गर्भावस्था - यह अवस्था गर्भाधान से जन्म तक रहती है। इस अवस्था की अवधि 9 मास या 280 दिन है। यह बाल विकास की सबसे तीव्र गति की अवस्था है। अण्ड कोष्ठ (Egg cell) तथा शुक्र कोष्ठ (Sperm cell) के समन्वय से जो कोष्ठ विभाजन की प्रक्रिया (Mitosis) होती है उसके बीजाणु क्रमशः विकसित होते-होते 9 महीने तक 3 किलोग्राम वजन और 20 इंच लम्बे शिशु का रूप ग्रहण कर लेते हैं। गर्भावस्था में मुख्य रूप से बालक का शारीरिक विकास हो ही जाता है।


2. प्रारम्भिक शैशवावस्था— यह अवस्था जन्म से लेकर 14 दिन तक को अवस्था है। इसको प्रायः नवजात अवस्था कहा जाता है। यह विकास में एक पठार या विश्रामावस्था है जिससे विकास की गति रुक जाती है क्योंकि इस अवस्था मे शिशु नवीन वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। इसके द्वारा ही वह आत्मनिर्भर बनता है।


3. उत्तर शैशवावस्था- इस अवस्था की अवधि जन्म के 14 दिन के बाद से 2 वर्ष तक की है। इस अवस्था में शिशु अपनी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर होता है। धीरे-धीरे वह अपनी मांसपेशियों पर नियन्त्रण करना सीखने लगता है जिससे वह खाने-पाने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, बोलने-खेलने आदि की क्रियाएँ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकें |

4. बाल्यावस्था- यह अवस्था 2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बालक वातावरण से सामजस्य करने लगता है और उस पर नियन्त्रण करने लगता है। जब वह वातावरण में किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव करता है तो वह अपनी वाणी को सहायता लेता है और वातावरण से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार प्रकार के प्रश्न पूछता है। इस प्रकार उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत तीव्र होती है। 6 वर्ष की आयु होने पर उसमें सामाजिकता की भावना का विकास होने लगता है और वह मित्र मण्डली बनाकर खेलना पसन्द करता है|

5. किशोरावस्था— यह अवस्था 11 वर्ष से लेकर 21 वर्ष तक की होती है। हरलॉक ने इस अवस्था को निम्नलिखित तीन उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है ㅡ


(i) पूर्व किशोरावस्था- यह अवस्था प्राय: दो वर्ष तक की अर्थात् 11 वर्ष से 13 वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में बालक तथा बालिकाओं के यौन अंगो की तीव्र विकास होता है किन्तु उनका संवेगात्मक एवं सामाजिक नियन्त्रण जो अब तक विकसित हुआ था शिथिल होने लगता है। फलस्वरूप कई बातों पर उनका नकारात्मक दृष्टिकोण रहता है। इसलिए इस अवस्था को बुहलर ने सकारात्मक अवस्था कहा है।


(ii) प्रारम्भिक किशोरावस्था— यह अवस्था 13 से 17 वर्ष तक ही है। इसमें बालक तथा बालिकाओं का पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास हो जाता है। इन अवस्था में बालक प्रायः हाईस्कूल कक्षाओं में पढ़ता है।


(iii) उत्तर किशोरावस्था - यह अवस्था 17 से 21 वर्ष तक की होती है। शारीरिक तथा मानसिक विकास पूर्ण हो चुकने के कारण अब किशोर तथा किशोरी पूर्ण वयस्क हो जाते है। इस अवस्था में वे समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाना चाहते हैं। अतः वे माता-पिता एवं अन्य लोगों तथा रीति-रिवाजों से स्वतन्त्र होने की तीव्र इच्छा करने लगते हैं। वे अपना जीवन विपरीत यौन के व्यक्तियों के साथ बिताने के लिए तीव्र आकांक्षा करने लगते हैं। इस अवस्था के बाद वे प्रौढ़ावस्था में पदार्पण करते हैं।


4. जोन्स के अनुसार

उपर्युक्त वर्णित अवस्थाओं का सुविधाजनक अध्ययन करने के लिए डॉ० अरनेस्ट जोन्स द्वारा किया गया विकास की अवस्थाओं का विभाजन अधिक उपयुक्त है। उनके अनुसार व्यक्ति का विकास निम्नलिखित चार सुस्पष्ट अवस्थाओं में होता है —


                                    1. शैशवास्था (Infancy)                              जन्म से 3 वर्ष तक

                                    2. बाल्यावस्था                                            6 से 12 वर्ष तक

                                    3. किशोरावस्था (Adolescence)                 12 से 18 वर्ष तक

                                    4. प्रौढ़ावस्था (Adulthood)                          18 वर्ष के बाद।


बाल विकास के सिद्धान्त


बाल विकास के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं


1. समविकास का सिद्धान्त – आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा क्रमिक विकास के सिद्धान्त का पक्ष नहीं किया गया है। इनके मतानुसार बालकों की सभी मानसिक क्रियाओं का विकास एक साथ होता है क्योंकि बालक में सभी मानसिक क्रियाएँ निहित रहती हैं। यह एक अलग बात है कि उनका विकास किसी विशेष परिस्थिति में होता है कि नहीं।


2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त प्राचीन मनौवैज्ञानिकों का यह मानना रहा है कि बालक की मानसिक क्रियाओं का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। सर्वप्रथम एक मानसिक क्रिया का विकास होता है और उसके पूर्ण होने पर दूसरी मानसिक क्रिया का विकास आरम्भ होता है। उदाहरण के लिए, प्रत्यक्षीकरण का विकास पहले होता है और उसके पूर्ण होने पर स्मृति का विकास होता है।


अभिवृद्धि तथा विकास का महत्व


शिक्षा में अभिवृद्धि तथा विकास के महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है--- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थी का चहुमुखी विकास कराना होता है। चहुमुखी विकास का तात्पर्य एक बालक के सर्वांगीण अथवा मानसिक, सामाजिक एवं चारित्रिक विकास से लगाया जाता है। किसी भी बालक का चहुमुखी विकास करने के लिए शिक्षक को उसकी अवस्था को विशेषताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि विकास की प्रत्येक अवस्था में मानसिक संवेगात्मक विकास के आवेग भिन्न-भिन्न होते हैं। इन अवस्थाओं में मानसिक स्थिति विभिन्न संघर्षों एवं तनाव से सम्बद्ध होती है तथा शारीरिक विकास भी भिन्न-भिन्न होता है।


इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति बालक के विकास के रूप में फल देती है। बालक के विकास का दायित्व घर में अभिभावक एवं विद्यालय में अध्यापक के कन्धों पर होता है।


एक बालक का चहुमुखी विकास तभी सम्भव है जब घर में अभिभावक व विद्यालय में अध्यापक उसकी मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक समस्याओं का समाधान करें। इन समस्याओं के समाधान करने के लिए अध्यापक को उन तत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है जो बालक के सामाजिक, मानसिक संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं। इन तत्वों के ज्ञान होने पर हो इन कारकों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है एवं शिक्षा के उद्देश्यों के अनुसार उनका मार्ग दर्शन किया जा सकता है।


May 22, 2022

Developmental Tasks and Need of Guidance and Counseling in Adolescence { Part 5 }

 



Developmental Tasks of Adolescents


The concept of developmental task was developed by an American Psychologist, Robert Havinghurst on the basis of his extensive researches and proposed a list of development tasks right from infancy to old age. He defined "a developmental task is a task which arises at or about a certain period in the life of the individual, successful achievement of which leads to happiness and success with later tasks while failure leads to unhappiness in the individual, disapproval by the society and difficulty with later tasks". Thus it can be said that in each stage of development there are certain tasks or activities, skills, understanding and attitudes that must be met before a person can move on to a higher level of development.


The developmental tasks of adolescence are given below:

I. Achieving new and more mature relationships with age-mates of both sexes

When a child enters adolescence, the society expects that he should be able to establish healthy relationship with the members of both the sexes. But generally, we do not permit free mixing of adolescent boys and girls in our society. Therefore it can be suggested that one should not always think negatively rather an adolescent should be allowed to communicate freely the quality of social life and occupational choice with his/her peer group for better social dealings.

II. Achieving a masculine or feminine role

During this transitional period, adolescents should be provided guidance and counselling as regards to their sex role in the society which they are going to perform as man or woman.

III. Accepting one's physique and using the body effectively

During adolescence, physical and physiological changes occur at a very rapid speed. Thus he/she must be guided properly so that they can make proper use of their physical strength for the benefits of the society.

IV. Achieving emotional Independence of parents and other adults

Sometimes it is noticed that parents treat their adolescent son and daughter as child and behave accordingly. But due to mature development, adolescents rebel against the rigid attitude of parents. So, it is suggested that they may be guided properly and parents should understand their problems and difficulties sympathetically.

V. Preparing for family and marriage life

During this period an adolescent needs proper education regarding the preparation for family and marriage life otherwise successful achievement of life may be hindered.

VI. Preparation for an economic career

During adolescence organization and planning of future life can be strengthened in such a way that one can enter a career of his/her own choice and can justify it. Thus guidance must be provided in the educational institution so that development of courage and confidence can be strengthened among the adolescents.

VII. Acquiring a set of values and an ethical system as a guide to behaviour

What should be the values and ethical system (religion) that one will eventually adopt in life depends upon the society and the system where he/she lives in. Therefore, varieties of values and beliefs of the society must be put forth before the adolescent to facilitate to draw conclusions according to the demands of the society.

VII. Desire to achieve socially responsible behaviour

The main objective of this task is to include the development of social ideology which allows the adolescent to be a responsible participant in the development and progress of his/her community and country. Therefore it is said that to be a responsible adult and a responsible citizen demands that one takes into account of the values of society in one's personal behaviour.

・ Role of the Teacher and Educational Importance of the Adolescence Period

(1) Adolescents worry a great deal about the physiological changes that occur in them. Thus honest replies to their queries could help to eliminate much of the fear and anxiety that the adolescent experiences.

(2) It is a known fact that teenaged boys and girls are growing into adult men and women. Therefore, school library and work rooms must be adequately equipped in order to cater to the needs of the adolescent.

(3) Adolescence is a critical period. They feel happy if they are asked to help or to give their ideas and resent adult attempts to impose views on them. Hence parents should discuss the matter with them and leave them free to accept or reject the view.

(4) Adolescents demand independence. Hence the teacher must provide opportunities for self-study and freedom to select their and hobbies in their day-to-day life. 

(5) Teachers must be patient and tactful in all their dealings with adolescents. Sincerity and a friendly attitude help the adolescent from destructive tendencies in them.

(6) Teachers should not adopt double standards while dealing with adolescents. They should set a good example of good conduct and display his/her own emotional stability. 

(7) The teacher should make a thorough understanding of the general characteristics of the period of adolescence, its stress and strains, urges, charges and problems so that proper information about sex and vocational guidance can be provided.

(8) If the parents and teachers expect respect and trust from the adolescent they must first give it on the basis of clear and correct information to them.

(9) Teacher should redirect the energies of the adolescents into fruitful channels through games, sports and other creative recreational activities. Even some programme of moral and religious teaching should be organised in the school.

(10) Adolescents try to establish link with their peer groups to maintain social relationship. Hence the adolescent can be given scope in this direction by allowing them to participate and take leadership in different activities organised in the school.

(11) Since the adolescent is attaining intellectual maturity the school curriculum must be varied to meet his intellectual curiosity. Hence suitable books on adventures, travels and biography must be provided to them so that good reading habits and noble ideas can be developed in them.

(12) Parent-teacher associations should be strengthened and joint effc. ts should be made to understand the problems of an adolescent and necessary remedies should be provided.

Guidance and Counselling of Adolescents 

・  Meaning and Definition of Guidance

By guidance is commonly meant to tell another person the correct method of doing something; such as parental guidance to children on how to do a task. But in the field of psychology, this term has its own technical meaning. By guidance in psychology means to make a man aware of his ability and capability to solve his problem and thus to prepare him to solve his problem himself.

 In the words of Honarins:

Guiding means helping John to see through himself in order that he may see himself through. 

We can define it more clearly in the following way :

Guidance is that process by which a person is acquainted with his ability and capability related to his problem by a specialist and is assisted in solving that problem by his ability and capability himself and to adjust with himself, others and his circumstances in proper manner.

・  Meaning and Definition of Counselling

In guidance a person is acquainted with his psychophysical ability and capability in order to enable him to solve his problem and in counseling, the counsellor assists an individual to use his ability and capability. Thus, counselling is held after guidance. Another distinction between the two is that guidance can be given individually as well as collectively, but counselling is always individual. At present, counselling is given after guidance, so now these two terms are used together as guidance and counselling.

・  Need of Guidance and Counselling to Adolescents 

Though guidance and counselling are needed by everybody, yet it is especially needed by adolescents. During adolescence, adolescents undergo rapid physical, mental, emotional and social changes, due to which many problems are confronted by them, and if these problems are not resolved immediately, they may create many mental illnesses and their conduct may become otherwise. This is the stage of formation and deformation. So guidance is much needed during this stage. are possibilities of adolescents treading a bad path in the absence o proper guidance. We have already talked at different places of giving proper nutrition, sports and exercise facilities, participation in literary and cultural activities, sex education, and treating them respectfully and meeting their needs so as to satisfy them. But all this cannot solve all their problems properly, they still require proper guidance and counselling.

The problems before adolescents pertaining to their education are some of them do not like to study, some of them are not interested in studying a particular subject, and some of them face a specific problem in understanding a particular subject, etc. This is the stage when they complete their general education and enter the field of specific education. Now the problem before them is whether to take admission in art. science, commerce or vocational stream, and to select which subjects, activities and vocations in that stream. Guidance is needed for the solution of all these problems.

The third gravest problem before adolescents is about their profession. In the vocational stream, problems relating to the selection of vocation are specific. Each adolescent wants to select such a vocation which is considered to be prestigious in the society and which has good earning Guidance helps them to select a suitable vocation according to their psychophysical ability and capability. Thus, adolescents are in utmost need of guidance and counselling. Guidance and Counselling of Adolescents

The field of guidance and counselling of adolescents can be divided into three parts general, educational and vocational. We shall discuss in brief the scope and working system of these three types of guidance and counselling.

1. General Guidance and Counselling: In the field of general guidance and counselling are included the problems of adolescents related to their physical health, sex, mental health, emotional condition, adjustment, selection of values, etc. These problems are individual, so the guidance provided for resolution of these problems is called individual guidance also. The following steps are followed in providing this type of guidance and counselling:

(i) Understanding the Problem: At first the guide understands the particular problem of the adolescent and determines how far he has to assist him in solving of the problem.

(ii) Understanding the Causes of the Problem: After having given a certain form to the problem, he finds out the causes of the problem. For this, he makes use of interview, data collection and psychological tests etc. as may be needed.

(iii) Understanding the Potentialities and Abilities: Having understood the causes of the problem, the guide finds out the psychophysical potentialities and abilities of the adolescent. For it, he makes use of intelligence test, aptitude test and interest test.

(iv) Guidance: Now the guide ask the adolescent to solve his problem with this help of his psychophysical potentiality and ability; the adolescent follows this advice to solve the problem himself.

(v) Counselling: Counselling is provided after guidance if the particular adolescent is assisted in solving his problem.

(vi) Follow Up Programme : This is the final step of guidance. On this step, the guide ascertains how far has the adolescent solved the problem on the basis of the guidance and counselling. If he has not solved his problem properly, then its causes are analyzed and the whole process is repeated again.

2. Educational Guidance and Counselling: In the field of educational guidance and counselling, problems related to education are included, such as disinterest in studies, difficulty in understanding a subject, selection of a particular stream for further studies, selection of subjects in a particular stream, etc. The steps of educational guidance and counselling are the same which are those of general guidance, but there is a difference in their form. Educational guidance is given individually and collectively, both. Counselling can be given only individually, so it is given individually.

(i) Understanding the Educational Problem: At first the guide understands the particular problem of the adolescent or adolescent-group and provides him/it a definite form and decides its scope.

(ii) Understanding the Causes of the Problem: When educational guidance is given before the problem has not manifested itself, then there is no need to find out its causes, but when solution is given after the problem has arisen, then its causes are found out. A guide uses interview method, data collection method and psychological tests to find out the causes, as may be needed.

(iii) Understanding the Potentialities and Abilities : Before giving any type of guidance, it is necessary to understand the psychophysical potentialities and abilities of the adolescent or adolescent-group. Guidance is given on that basis. For it, a guide uses psychological tests intelligence test, interest test and aptitude test, etc. 

(iv) Guidance: The solution to the problem is told depending form of the problem and psychophysical potentialities and abilities of the adolescent or adolescent-group. This task is performed by the guide very carefully.

(v) Counselling: After guidance, the adolescents are assisted individually. The counsellor assists an individual to do his work himself needed.

(vi) Follow Up Programme: After guidance, a guide sees how much an adolescent is taking advantage of the guidance. Re-guidance is arranged on the basis of this evaluation of needed.

3. Vocational Guidance and Counselling: The scope of vocational guidance includes the problems of adolescents relating to their vocation. The first problem of adolescents pertaining to vocation is - selection of a vocation for study and training. Having selected a vocation, the problems pertaining to its study and training are faced. These problems are of different types-difficulty in understanding the theoretical aspect, difficulty in practical training, difficulty in the training institution, anxiety relating to future placement, etc. This guidance is also given individually and collectively both and is given before a problem arises or after it has manifested itself. The steps of guidance are the same, but their form is a little different:

(i) Understanding the Problem: At first the guide understands the particular problem of the adolescent or adolescent-group as pertaining to the vocation, and then ascertains its form and determines its scope.

(ii) Understanding the Causes of the Problem: When vocational = guidance is given before the problem has arisen, then only its fundamental factors are considered, and when a solution is given after the problem has manifested itself, then its causes are found out. A guide uses observation method, interview method, data collection method, =psychological tests, etc. in order to find out the causes. Intelligence tests. aptitude tests, interest tests, attitude tests are important psychological tests, and the most important among them are the aptitude tests.

(iii) Understanding the Potentialities and Abilities: Whether guidance is given before the problem has arisen or after it, it is given on the basis of psychophysical potentialities and abilities of the adolescent or adolescent-group, so they are measured first. For it, a guide makes use of psychological tests intelligence tests, aptitude tests, interest tests =of and attitude tests.

(iv) Guidance: The solution to the problem is told to the adolescent or adolescent-group depending on the form of the problem and their psychophysical potentialities and abilities. This task can be performed only by specialists.

(v) Counselling: A counsellor assists the adolescent or an individual in order to eliminate any difficulties arising in the way of problem-solving. This assistance is given individually.

Need and Problems of Adolescence { Part 4 }


Need and Problems of Adolescence


Adolescence is a period of rapid changes. The peculiar and unusual changes that take place during this stage create problems for the adolescent boys and girls. Similarly the need of adolescents are really different from earlier stages of life cycle. If the need of adolescents are not properly gratified the adolescent becomes a problem youth. The basic need and problems of the adolescent boys and girls are as follows.


(A) Need of Adolescence

(1) Sex need:


The maturing of the sex glands is the most important single development of the adolescent years. The sexual instinct which was dormant takes a strong turn and develops into hetro sexuality (attachment towards the opposite sex). Development and sudden functioning of the sex organs create worries, anxieties and tension among the adolescent boys and girls. Members of both sexes display a variety of attitudes towards the changes in their bodily functions, and these attitudes influence their personalities, their school work, interest and their general adjustment to life. Thus to channelise the sex desire of an adolescent youth in a right track, varieties of programmes like creative activities, athletics, moral and sex education can be introduced in the school.


(ii) Security Need:


The adolescent is on the boundary line of childhood and adulthood. So he is typically a person who needs security. guidance and protection like a child and independent views, maturity of opinion and self support like an adult. This need can be fulfilled if the adolescent is given an opportunity of studying the biography of greatmen like Gandhi, Tagore, Vivekananda, Kabir, Nanak, Dayananda, Laxmibai and Sarojini Naidu, etc.


(iii) Gregarious Need:

It is a fact that instincts of the adolescents assumes greater strength and importance at this stage. The adolescents have the enormous power and desire to do many activities to sublimate the animal instincts, which may be desirable or undesirable. Without this sublimation, his intellectual, social, moral and intellectual aspects of the personality cannot be properly trained. Thus adolescents should be provided opportunity to satisfy their basic need through group formation as scouting, NCC, Social service, and community activities otherwise they may indulge themselves into the activities of pick-pocketing, truancy and robbery which are unsocial activities to satisfy their gregarious feelings.


(iv) Adventurous Need:


The feeling of adventure is maximum during adolescence. In the absence of proper direction it takes the form of aimless wandering and unsocial activities. In order to satisfy the anxiety of adolescents excursions, picnic and educational tours, etc., should be organised. Thus providing an opportunity to the adolescents during this period can fulfil their physical needs vis-a-vis adventurous qualities.


(v) Social Need:


An adolescent, in almost all the activities, wants recognition in the form of a praise or a reward or a prize for social approval. He is ambitious of achieving success and getting public recognition. Thus during this stage an adolescent youth requires a good deal of sympathy. If their success or achievement is not recognised at home or in the school they begin to lose interest in such activities and may turn into violent and unrealistic ways.


(vi) Self-awareness Need:


 It is a age of self-decoration. Both boys and girls pay more attention towards their dress, make-up, manner of talking, walking, eating, etc., and desires that he/she should be a center of attraction for the opposite sex and recognised by the peer group and elders. So, if their need of self-awareness is not looked into then the adolescents become either aggressive or withdrawn type depending upon the circumstances.


(vii) Need for Status:


Although adolescence is a stage of transition and period of rapid change yet their behaviour and thinking are not accepted by the society easily. If their need for status is not met satisfactorily in the family or in the school it may lead to confusion, ambiguity and disappointment in them. Thus their status in the society must be understood by parents and teachers and accordingly opportunity for participating in all decision making programmes in home, school and the community should be provided.


(viii) Need for Independence:


Adolescents youth need economic and emotional independence. They do not like to depend upon their parents regarding money matter and no longer want to be treated as a child. They want to be self sufficient but they are inexperienced and incapable of taking responsibility for their security and comforts which leads to confusion, anxiety and frustration in them.


(ix) Need for Recreation Activities:


Adolescents are interested to spend their recreation time in useful ways. If their need for recreation is not utilised in proper order then their study is hampered. Thus parents and teachers should guide them properly to utilise their recreation time in a fruitful manner.


(x) Vocational Need:


The strong desire of adolescents is to achieve self sufficiency and make himself/herself quite independent like an adult member of the society. They prefer to earn himself/ herself independently and follow a suitable vocation. Thus during this stage proper care should be taken while educating them as well as an idea about selection of the various vocations as occupation must be informed.


(B) Problems of Adolescents


Adolescence is a period of rapid changes in all demensions of development.

When the needs of adolescents are not satisfied problems occur in behavioural characteristics.

Thus problems of adolescents are either due to himself/herself or due to the conditions of the society in which he/she lives. Lay Cock and other psychologists grouped the problems of adolescent as under:


(1) Problems of adjustment due to changing physical growth and physiological development.


(ii) Becoming emancipated from family and free from emotional dependence on parents. 


(iii) Accepting own characteristics of sex-role and making adjustment to the opposite sex.


(iv) Finding and ensuring on a suitable vocation. give


(v) Developing a sound philosophy of life which will meaning and purpose to life.


(vi) Adjustment to personal, social, health and home life relationship. 


(vii) Adjustment difficulties with parents and the community. 


(vii) Adjustment difficulties in relation to finance. employment, marriage life and future educational and vocational adjustment.


In addition to the above, the problems frequently reported by the adolescents are given in details:


I. Problem of Sex


The period of adolescence is known as a period of stress and strain. It is the most difficult and the awkward period. The period marks the re-awakening of repressed sex-impulse. Thus to help an adolescent sex-education may be introduced in the syllabus as a compulsory subject.


II. Problems related to Education


During the period of adolescence the specific problems related to education are dislike for study, fear of failure, restlessness in class, low grade in the examination, fear of speaking in the class, too much work, dislike for school, partial behaviour of teachers and groupism on the basis of caste, creed and religion. This situation frustrate the mental state of the adolescents.


III. Problems of adjustment at Home


It is a fact that Indian parents have not changed their traditional attitude towards their adolescent sons and daughters. Sometimes parents in majority of the cases are responsible for the problems like imposing restriction on their freedom misunderstanding between parents and adolescents at home, treating adolescent as a small child and not providing facilities when he is in need, etc., are the causes of adjustment problems of adolescents.


IV. Problems related to emotion


The abnormal functioning of the nervous system and the endocrine glands are mainly responsible for emotional problem. Adolescents have both the extreme emotions, i.e.. positive and negative. What is required is to help him/her in emotional control. His/her various needs must be satisfied and guided properly.


V. Adjustment difficulties with school and the community 


A rigid discipline, an over-crowded school, an unhealthy atmosphere, and lack of activities in the school, etc., may create problems of adjustment. Adolescents like to go out, mix with friends and to do some social service but the society has some restrictions. Thus an adolescent must be dealt with sympathy and engaged in work according to their ability in the school.


VI. Problems of Economic Independence


It has been reported by a number of studies that the adolescent does not like to depend upon their parents regarding money matter. He/She prefers to earn for himself/ herself and follow a suitable vocation. But due to inadequate experiences and incapable of taking responsibilities for their security and comforts they feel frustration. Thus proper guidance may be given to adolescents by the parents and teacher.


VII. Problems of Vocational Adjustment


Adolescents are very much concerned about their future vocation. The problems lie with the selection of a vocational preference and preparation for it. Thus proper care should be taken in the school that while educating him/her an idea about the availability of different vocations and its selection procedure, etc., must be informed.


IX. Problems of choosing right philosophy of life


Adolescence is a period of wider social contacts, increased mental ability and understanding, and excessive physiological development which create problems and bother adolescents too much. Which philosophy of life they have to follow is difficult and complex on their part to decide. Thus, opportunity must be provided to the adolescent to take a decision to govern their future life in a positive manner.

Growth and Development During Adolescence { Part 3 }

Growth and Development during Adolescence



Adolescence begins in biology and ends in culture. It is a period of growth which is characterised by rapid physical, emotional, social, moral and intellectual developments. The following are the developments during adolescence.

(a) Physical growth/changes in Adolescence


(1) Height and Weight (size) and bodily development:


Adolescence is a period of rapid physical growth and dramatic bodily changes. There is a sudden change in height and weight due to hyper activity of endocrine glands. The girls are about two years ahead of the boys in the early adolescence in almost all the physical growth and maturity but boys are able to compensate it in the later part of the adolescence period. The glands become active and there is increased production of hormones. Arms and heart also grow in length and size. There is growth in bones and muscles and as a consequence adolescent become conscious and comes to acquire great energy and power.


(ii) Appearance and voices

There is a change in appearance, face is more angular, sound is hoarse and high-pitched and sweeter in case of girls. Many boys begin to shave, though most of them have little reason to do so. Slowly not only face whiskers but also hair comes on the forearms, and legs and chest begin to appear in a goodshape. In case of females, the face takes on a softer look, the lips become fuller and the breast start filling out.


(iii) Change in body functions

With the secretion of hormones from ductless glands there is change in body functions. The muscles hardens, menstruation starts in girls and night emissions in boys. The sensory and motor organs assume their complete development during this period. Cole said 'Adolescence is a period of growth in all systems of the body to the fullest and greatest possible extent. Stanley Hall pointed out that "not only motor activity increases but there is also a great development in the motor power".


Thus adolescence is a period of growth. In the course of a few years the individual undergoes changes in both size and proportion-changes that take him/her from a childish to a mature level. The rapidity, variety, and force of these developments are alike bewildering, even though they are sometimes exciting and satisfactory. The alternations are indeed so extensive that some people have regarded adolescence as a sort of second birth. Usually there some degree of mal co-ordination to be seen during the period. is therefore essential that teachers should keep in mind the physical background of adolescence so that effective learning can takes place.


The most characteristic developments during adolescence are the lengthening of all the long bones and the final articulation of all the bones at their respective joints, changes which underlie the increases in height and strength. The wisdom teeth appear, causing some trouble, the face changes a great deal and loses its childish contours by the end of adolescence period.


(b) Sexual development

Puberty, the 'centering event of adolescence, refers to the beginning of sexual maturity. The maturity of the sex glands is the most important single development of the adolescent years. In case of the males the penis, growth of pubic hair, prostate gland and seminal vesicles begin to work. Similarly in females gradual enlargement of the reproductive organs. change in ovaries and uterus, development of breasts, pelvic area and menstruation starts. All girls become self-conscious about this type of change. Both boys and girls develop attraction towards the opposite sex. Members of both sexes display a variety of attitudes towards the changes in their bodily functions and these attitudes influence their personalities, their school work, and their general adjustment to life.


(c) Mental Development during Adolescence

During the adolescence the capacity to acquire and to utilise knowledge reaches its peak efficiency. Adolescent becomes capable of accomplishing more easily, more quickly and more efficiently intellectual tasks and he or she is able to define problems and to give reason about them. Thus there is a marked growth in mental power. He can apply logical thought to all classes of problems. Problem solving behaviour also appears at this stage. The adolescent can plan carefully, design an experiment appropriately, observe the results accurately and draw conclusions rightly.


In simple sense we can say that adolescents may concentrate for longer time, think abstractly, development of permanent memory starts, imagination power increases, development of logic, more curious to ask questions, become critical to everything, start thinking about their future vocations, marked increase in vocabulary and matures mentally.


He has a greater ability to form concepts, the concept of time gradually gains in clarity and tendency to over-generalise the concept is still present. The adolescent shows an increased Interest in national and International affairs and is seriously concerned about his place in society and his success in his role.


He is more introspective and analytical and Piaget called it formal operation period of cognitive development. This period of intellectual development is the ability to "see through" situations of all kinds to their inner meaning.


(d) Religious beliefs and Moral Development during


An interest in or a revolt against religion is an integral part of adolescence. In spite of a small minority of highly verbal cynics, religion continues to play a part in human existence and is of special value during the adolescent years in formulating ideals and standards of conduct.

By the time the child reaches adolescence, his moral conduct is fairly well informed and he is capable of understanding what is right and what is wrong. The desire to reform the world and to do some good work during life time is very strong. Most young people want to find a satisfactory philosophy of life and his values are influenced by peer group than by parental values system.


(e) Emotional Development during Adolescence

Emotional life of adolescence concerns loyalties to the group, aggression and affection. Peel has commented that "the adolescent is beset by problems of divided loyalties. accentuated by the lack of adult privileges and responsibilities. He thus appears excessively aggressive and then excessively shy, excessively affectionate and then quite suddenly detached and cool because of bodily changes." Thus, sometimes he is "hillarious" but on the otherhand he is extremely "melancholy". He is also very sensitive and does not welcome any criticism or attack on his prestige.


Strange feelings capture the minds of adolescents. Sex consciousness raises the feelings of curiosity, secretiveness and guilt. He has a strong group feelings and loves adventure, travel and wandering. Emotions become realistic and some time he is over-joyed by his success but at the sametime he is extremely depressed and sad by imagining the problems of finding a job. Adolescents may be termed as moody because their emotions fluctuate too rapidly.


The onset of sexual maturity also contributes to adolescent fears and anxiety. Emotions become intensed like hate some one strongly and love passionately. If they suffer from inferiority complex and do not get their dues they may think to run out from the house (to do some better work) and also to commit suicide, if it becomes more perplexed.


(1) Social Development during Adolescence

Adolescents are tremendously sensitive to social stimuli. They react faster and more deeply to the influence of their age-mates than to that of adults. Adolescents strive for psychological separation from their parents. Gregarious instinct plays an important role in this period. He continues to be a member of a gang or group. Adolescents often act in very inconsistent ways. Peer group relationship established according to their sex, interests, abilities and attitudes.


During the teenage years, hetrosexual relationships emerge. Development of conscience and "peer culture", the sum total of spontaneous social manifestations among age mates, is most influential during the adolescence. Self consciousness increases, want to be praised by others and want social approval of their mode of behaviour, development of leadership qualities and love social service and like to serve in the fairs, festivals, social gatherings, etc. During this period adolescents follow adult culture patterns in their behaviour. Loyalty to group is strengthened and develop insight into social human relation. They often come into conflict with adults on social problems and tradition of the community.

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