April 14, 2023

विस्मृति (Forgetting) - विस्मृति का अर्थ व परिभाषा, विस्मृति के प्रकार, विस्मृति के कारण, विस्मृति कम करने के उपाय, शिक्षा में विस्मृति का महत्त्व

विस्मृति (Forgetting)

जब हम कोई नई बात सीखते हैं या नया अनुभव प्राप्त करते हैं, तब हमारे मस्तिष्क में उसका चित्र अंकित हो जाता है। हम अपनी स्मृति की सहायता से उस अनुभव को अपनी चेतना में फिर लाकर उसका स्मरण कर सकते हैं। पर कभी-कभी, हम ऐसा करने में सफल नहीं होते हैं। हमारी यही क्रिया- 'विस्मृति' है। दूसरे शब्दों में, “भूतकाल के किसी अनुभव को वर्तमान चेतना में लाने की असफलता को 'विस्मृति' कहते हैं।"

विस्मृति का अर्थ व परिभाषा (Meaning & Definition of Forgetting)

हम 'विस्मृति' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं-

1.मन के अनुसार –"सीखी हुई बात को स्मरण रखने या पुनः स्मरण करने की असफलता को विस्मृति कहते हैं।"

2. ड्रेवर के अनुसार–"विस्मृति का अर्थ है-किसी समय प्रयास करने पर भी किसी पूर्व अनुभव का स्मरण करने या पहले सीखे हुए किसी कार्य को करने में असफलता।"

विस्मृति के प्रकार (Kinds of Forgetting)

विस्मृति दो प्रकार की होती है-

1. सक्रिय विस्मृति (Active Forgetting):- इस विस्मृति का कारण व्यक्ति है। वह स्वयं किसी बात को भूलने का प्रयत्न करके उसे भुला देता है। 

2. निष्क्रिय विस्मृति (Passive Forgetting):- इस विस्मृति का कारण व्यक्ति नहीं है। वह प्रयास न करने पर भी किसी बात को स्वयं भूल जाता है।

विस्मृति के कारण (Causes of Forgetting)

'विस्मृति' या 'विस्मरण' के कारणों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते है-

(अ) सैद्धान्तिक कारण (Theoretical Causes):- बाधा, दमन और अनभ्यास के सिद्धान्त।

(ब) सामान्य कारण (General Causes):- समय का प्रभाव, रुचि का अभाव, विषय की मात्रा इत्यादि।


1. बाधा का सिद्धान्त (Theory of Interference):- इस सिद्धान्त के अनुसार, यदि हम एक पाठ को याद करने के बाद दूसरा पाठ याद करने लगते हैं, जो हमारे मस्तिष्क में पहले पाठ के स्मृति-चिन्हों (Memory Traces) में बाधा पड़ती है। फलस्वरूप वे निर्बल होते चले जाते हैं और हम पहले पाठ को भूल जाते हैं। 

2. दमन का सिद्धान्त (Theory of Repression):- इस सिद्धान्त के अनुसार, हम दुःखद और अपमानजनक घटनाओं को याद नहीं रखना चाहते हैं। अतः हम उनका दमन करते हैं। परिणामतः वे हमारे अचेतन मन में चली जाती हैं और हम उनको भूल जाते हैं। 

3. अनभ्यास का सिद्धान्त (Theory of Disuse)- थार्नडाइक एवं एबिंगहॉस (Thorndike and Ebbinghaus) ने विस्मृति का कारण अभ्यास का अभाव बताया है। यदि हम सीखी हुई बात का बार-बार अभ्यास करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं। 

4. समय का प्रभाव (Effect of Time):- हैरिस (Harris) के अनुसार : सीखी हुई बात पर समय का प्रभाव पड़ता है। अधिक समय पहले सीखी हुई बात अधिक और कम समय पहले सीखी हुई बात कम भूलती है। 

5. रुचि, ध्यान व इच्छा का अभाव (Lack of Interest, Attention Will):- जिस कार्य को हम जितनी कम रुचि, ध्यान इच्छा से सीखते हैं, उतनी ही जल्दी हम उसको भूलते हैं। स्टाउट के अनुसार :- "जिन बातों के प्रति हमारा ध्यान रहता है, उन्हें हम स्मरण रखते हैं।" 

6. विषय का स्वरूप (Nature of Material):- हमें सरल, सार्थक और लाभप्रद बातें बहुत समय तक स्मरण रहती हैं। इसके विपरीत, हम कठिन, निरर्थक और हानिप्रद बातों को शीघ्र ही भूल जाते हैं। 

7. विषय की मात्रा (Amount of Material)- विस्मरण, विषय की मात्रा के कारण भी होता है। हम छोटे विषय को देर में और लम्बे विषय को जल्दी भूलते हैं। 

8. सीखने में कमी (Underlearning) - हम कम सीखी हुई बात को शीघ्र और भली प्रकार सीखी हुई बात को विलम्ब से भूलते हैं। 

9. सीखने की दोषपूर्ण विधि  (Defective Method of Learning) - यदि शिक्षक, बालकों को सीखने के लिए उचित विधियों का प्रयोग न करके दोषपूर्ण विधियों का प्रयोग करता है, तो वे उसको थोड़े समय में भूल जाते हैं। 

10. मानसिक आघात (Mental Injury) - सिर में आघात या चोट लगने से स्नायुकोष्ठ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। अतः उन पर बने स्मृति-चिन्ह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। फलस्वरूप, व्यक्ति स्मरण की हुई बातों को भूल जाता है। वह कम चोट लगने से कम और अधिक चोट लगने से अधिक भूलता है। 

11. मानसिक द्वन्द्व (Mental Conflict)- मानसिक द्वन्द्व के कारण मस्तिष्क में किसी-न-किसी प्रकार की परेशानी उत्पन्न हो जाती है। यह परेशानी, विस्मृति का कारण बनती है। 

12. मानसिक रोग  (Mental Disease) - कुछ मानसिक रोग ऐसे हैं, जो स्मरण शक्ति को निर्बल बना देते हैं, जिसके फलस्वरूप विस्मरण की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार का एक मानसिक रोग-दुःसाध्य उन्माद (Psychosis) है। 

13. मादक वस्तुओं का प्रयोग (Use of Intoxicants)- मादक वस्तुओं का प्रयोग मानसिक शक्ति को क्षीण कर देता है। अतः विस्मरण एक स्वाभाविक बात हो जाती है। 

14. स्मरण न करने की इच्छा (Lack of Desire to Remember) - यदि हम किसी बात को स्मरण नहीं रखना चाहते हैं, तो हम उसे अवश्य भूल जाते हैं। "We forget much that we do not want to remember.” -Sturt & Onkden

15. संवेगात्मक असन्तुलन  (Emotional Disturbance) - किसी संवेग के उत्तेजित होने पर व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक दशा में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। उस दशा में उसे पिछली बातों का स्मरण करना कठिन हो जाता है। बालक, भय के कारण भली प्रकार याद पाठ को भी भूल जाता है।

विस्मृति कम करने के उपाय  (Ways of Minimising Forgetfulness)

 किसी बात की कम विस्मृति का अर्थ है- उसे अधिक समय तक स्मरण रखने या स्मृति में धारण रखने (Retention) की क्षमता न होना। अतः विस्मृति को कम करने या धारण-शक्ति में उन्नति करने के लिए निम्नांकित उपायों को प्रयोग में लाया जा सकता है। 

1. पाठ की विषय-वस्तु (Content Matter)- कोलेसनिक का मत है - पाठ की विषय-वस्तु अर्थपूर्ण, क्रमबद्ध और बालक की मानसिक योग्यता के अनुरूप होनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की विषय-वस्तु की विस्मृति की गति और मात्रा बहुत कम होती है। इसके अतिरिक्त, पाठ में आवश्यकता से अधिक तथ्य, तिथियों और विस्तृत सूचनाएं नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इनकी विस्मृति की गति और मात्रा बहुत तीव्र होती है। 

2. पूरे पाठ का स्मरण  (Memorising the Whole Lesson) -- बालक को पूरा पाठ सोच-समझकर याद करना चाहिए। जब तक उसे पूरा पाठ याद न हो जाय, तब तक उसे स्मरण करने का कार्य स्थगित नहीं करना चाहिए। साथ ही, उसे पाठ को आंशिक रूप से स्मरण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से पाठ का भूल जाना आवश्यक है। 

3. पाठ का अधिक स्मरण (More Learning of the Lesson)- पाठ स्मरण हो जाने के बाद भी बालक को उसे कुछ समय तक और स्मरण करना चाहिए। इसका कारण बताते हुए नन ने लिखा है :-"पाठ स्मरण हो जाने के बाद जितना अधिक स्मरण किया जाता है, उतना ही अधिक वह स्मृति में धारण रहता है।" 

4. बालक का स्मरण करने में ध्यान (Attention in Memorising)-पाठ को स्मरण करते समय बालक को अपना पूर्ण ध्यान उस पर केन्द्रित रखना चाहिए। वुडवर्क के शब्दों में इसका कारण यह है :- "सीखने वाला जितना अधिक ध्यान देता है, उतनी ही जल्दी वह सीखता है और बाद में उतनी ही अधिक देर में वह भूलता है।" 

5. अधिक समय तक स्मरण रखने का विचार (Decision for Long Retention) - बालक को पाठ यह विचार करके स्मरण करना चाहिए कि उसे उसको बहुत समय तक याद रखना है। तभी वह उसे शीघ्र भूलने की सम्भावना का अन्त कर सकता है। 

6. विचार- साहचर्य के नियमों का पालन (Use of Association Laws)- पाठ याद करते समय बालक को विचार-सहचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। उसे नवीन तथ्यों और घटनाओं का उन तथ्यों और घटनाओं से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए, जिनको वह जानता है। ऐसा करने से वह सम्भवतः पाठ का कभी विस्मरण नहीं करेगा। 

7. पूर्ण व अन्तरयुक्त विधियों का प्रयोग (Use of Spaced and Non-spaced Methods) – बालक को पाठ याद करने के लिए पूर्ण (Whole) और अन्तरयुक्त (Spaced) विधियों का प्रयोग करना चाहिए। इसका कारण यह है कि खण्ड (Part) और अन्तरहीन (Unspaced) विधियों की अपेक्षा इन विधियों से याद किए गए पाठ का विस्मरण कम होता है। 

8. सस्वर वाचन (Loud Reading) - बालक को पाठ बोल-बोलकर स्मरण करना  चाहिए। वुडवर्थ के शब्दों में इसका कारण यह है :- सक्रिय सस्वर वाचन के पश्चात् विस्मरण की गति धीमी होती है।" 

9. स्मरण के बाद विश्राम (Rest after Memorizing) - बालक को पाठ स्मरण के उपरान्त कुछ समय तक विश्राम अवश्य करना चाहिए, ताकि पाठ के स्मृति-चिन्ह उसके मस्तिष्क में स्पष्ट रूप से अंकित हो जायें।

10. पाठ की पुनरावृत्ति (Repetition)- पाठ को स्मरण करने के बाद बालक को उसे थोड़े-थोड़े समय के उपरान्त दोहराते रहना चाहिए। पाठ की जितनी ही अधिक पुनरावृत्ति की जाती है, उतनी ही अधिक देर से वह भूलता है "Relearning improves the memory traces and reduces forgetting."- Woodworth 

11. स्मरण करने के नियमों का प्रयोग (Use of Laws of Memory) - बालक को विस्मरण कम करने के लिए स्मरण करने की मितव्ययी विधियों का प्रयोग करना चाहिए। 

शिक्षा में विस्मृति का महत्त्व (Importance of Forgetting in Education)

कॉलिन्स व ड्रेवर ने लिखा है: "यह सत्य है कि विस्मरण, स्मरण के विपरीत है, पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से विस्मरण लगभग उतना ही लाभप्रद है, जितना कि स्मरण।" "It is true that forgetting is the opposite of remembering, but from a practical point of view forgetting is almost as useful as remembering. "

1. क्षणिक महत्त्व की बातों को भुलाना

2. समान रूप से अनुपयोगी बातों का भुलाना 

3. अस्त-व्यस्तता से बचाव 

4. दुःखद अनुभवों को भूलना

5. भाषा शिक्षण में उपयोगी

6. सीमित क्षेत्र का उपयोग-बालक का स्मृति

7. पुरानी बातों को भूलकर नई बातों को सीखना 
 
 हम कह सकते हैं कि बालक की शिक्षा में विस्मरण का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है। वह विस्मरण करके ही शिक्षा सम्बन्धी नई बातों को सीख सकता है। ठीक लिखा है : "स्मरण करने की एक शर्त यह है कि हमें विस्मरण करना चाहिए।" "One condition of remembering is that we should forget."-M. Ribot. शिक्षक को चाहिये कि वह छात्रों में नवीन चीजों को सीखने पर बल दे। उन्हें संतुलित रूप से सिखाये । संवेगात्मक संतुलन बनाये रखे।


शिक्षक को चाहिये कि वह छात्रों में नवीन चीजों को सीखने पर बल दे। उन्हें संतुलित रूप से सिखाये संवेगात्मक संतुलन बनाये रखे। 


Some important questions:

1. विस्मरण के कारणों का वर्णन कीजिए। बालकों में विस्मरण को कम करने के लिए किन उपायों का प्रयोग किया जाना चाहिए ?

Describe the causes of forgetting. What methods should be used to minimise forgetfulness in children?

 2. शिक्षा में विस्मरण के कार्य और महत्त्व पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

Write a short essay on the function and importance of forgetting in education.

3. कक्षा में सीखे गये पाठ को स्मृति में धारण करने में अधिक दक्षता प्राप्त करने की कौन-सी विधियाँ हैं ?
What are the methods of acquiring great perfection in retaining in memory the lesson learnt in the class.

4. विस्मृति के कौन-कौन-से कारण हैं? एक शिक्षार्थी को कौन-सी विधियाँ अपनानी चाहिए, जिनसे उसे अधिक अच्छा याद रह सके ? 
What are the causes of forgetting? What methods should a learner adopt in order to ensure better retention?

April 07, 2023

आदर्शवाद (Idealism)

 आदर्शवाद 

(Idealism)


आदर्शवाद का अर्थ (Meaning of Idealism)


आदर्शवाद अंग्रेजी शब्द idealism का पर्याय समझा जाता है। आइडियलिज्म दो शब्दों के योग से निर्मित है—(1) Idea' अर्थात् विचार तथा (2) 'ism' अर्थात् वाद शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार आदर्शवाद (Idealism) का अर्थ विचारवाद होता है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो (Plato) आदर्शवादी विचारधारा में मन या विचार की ही चिरन्तन सत्ता स्वीकार करता था, अर्थात् इस विचारधारा के अनुयायीयों को मनवादी (mentalist) या आध्यात्मवादी (spiritualist) भी कहा जाता था। कालान्तर में उच्चारण की सुविधा के कारण मूल शब्द आइडियाज्म में 'ल' ध्वनि सम्मिलित हो गई और इस शब्द का रूपान्तर आइडियलिज्म (Idealism) हो गया जो हिन्दी के आदर्शवाद का परिचायक बना। आदर्शवाद का अर्थ, पाश्चात्य विचारकों के अनुसार, इस प्रकार है- "इस दर्शन के अन्तर्गत आत्मा और मन को लेकर मानव और प्रकृति के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला जाता है और जीवन में चिन्तन को मुख्य स्थान दिया जाता है।“ आदर्शवादी प्राकृतिक, भौतिक तथा वैज्ञानिक तत्त्वों की अपेक्षा मानव तथा उसके विचारों, भावों तथा आदशों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं और जीवन का लक्ष्य शाश्वत सत्यों, आदर्शो एवं मूल्यों की प्राप्ति को मानते हैं।


आदर्शवाद प्राचीनतम विचारधारा है। पाश्चात्य देशों में आदर्शवाद का प्रतिपादन प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात और प्लेटो ने किया। आधुनिक युग में आदर्शवादी दार्शनिकों से डेकार्ट (Descrates), स्पिनोजा (Spinoza), लाइबनीज (Leibniz), बर्कले (Berkely), कान्ट (Kant), फिक्टे (Fichte), हीगल (Hegel), शैलिंग (Schelling), तथा जेन्टाइल (Gentile), प्रमुख हैं। शिक्षा में आदर्शवादी विचारधारा के प्रवर्तकों में कमेनियस (Comenius), पेस्टालॉजी (Pestalozzi) तथा फ्रोबेल (Froebel) मुख्य हैं। भारतीय आदर्शवादी दार्शनिकों में महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर की गणना की जा सकती है।


परिभाषाएँ (Definitions)


आदर्शवाद के सन्दर्भ में कुछ दार्शनिकों द्वारा दी गई निम्नांकित परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं—

 हैरोल्ड टाइटस (Harold Titus ) — "आदर्शवाद यह स्वीकारता है कि वास्तविकता भौतिक वस्तुओं तथा शक्ति की अपेक्षा विचारों, मन या स्व में निहित है।" 

"Idealism asserts that reality consists of ideas, thoughts, minds or selves rather than materials, objects and force."


हॉर्न (Horne) — “आदर्शवादी शिक्षा दर्शन मानसिक जगत का मानव को अभिन्न अंग समझने की अनुभूति का विवरण है।" 

"An idealistic philosophy of education is in account of man finding himself as an integral part of universe of mind."


रॉस .(Ross) — "आदर्शवाद के अनेक एवं विविध रूप हैं किन्तु इन सबका अन्तर्निहित सिद्धान्त है कि मस्तिष्क या आत्मा ही सम्पूर्ण जगत का मूल तत्त्व है तथा चिरन्तन सत्ता मानसिक है। 


आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त (Main Principles of Idealism)


आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-


1. सम्पूर्ण जगत् के दो रूप (Two Forms of World) - आदर्शवाद के अनुसार सम्पूर्ण जगत् के केवल दो रूप हैं—(1) आध्यात्मिक जगत् तथा (2) भौतिक जगत् । आदर्शवादी भौतिक जगत् की तुलना में आध्यात्मिक जगत् को अधिक महत्त्व देते हैं। उनका विश्वास है कि आध्यात्मिक जगत् क तुलना में भौतिक जगत् केवल एक झलक मात्र है। लाइबनीज महोदय ने लिखा है- “भौतिक तत्त्वसार रूप में मानसिक या आध्यात्मिक है। (Matter is in its essence mental or spiritual)। इसी प्रकार फेचनर महोदय का कथन है- "विश्व का भौतिक पहलू सार्वभौमिक मन का बाह्य प्रकटीकरण है।" (The physical aspect of uniterne is outer expression of universal mind) I


2. वस्तु की अपेक्षा विचार का महत्त्व ( Ideas more important than Objects)- आदर्शवादियों के अनुसार मन तथा आत्मा का ज्ञान केवल विचारों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने भौतिक जगत् के पदार्थों तथा वस्तुओं की तुलना में विचार एवं भाव जगत् को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उनका पूर्ण विश्वास है कि वस्तु अथवा पदार्थ असत्य है। केवल विचार की सत्य हैं, सर्वव्यापी हैं तथा अपरिवर्तनशील हैं।


3. जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य का महत्त्व (Man is more important than Nature)-आदर्शवाद के अनुयायी जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य को अधिक महत्त्व देते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य में विचार तथा अनुभव करने की शक्ति होती है। क्योंकि आदर्शवादी अनुभव जगत को अधिक महत्त्व देते हैं, इसलिए अनुभवकर्ता स्वयं और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है । रस्क (Rusk) ने मनुष्य के महत्त्व पर प्रकार डालते हुए लिखा है- "इस आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण स्वयं मनुष्य ही किया है, अर्थात् समस्त नैतिक तथा आध्यात्मिक वातावरण समस्त मनुष्यों की रचनात्मक क्रियाओं का ने ही फल है।" (The spiritual and cultural environment is an environment of man's own making. It is product of man's creative activity.) 


4. आध्यात्मिक सत्यों तथा मूल्यों में विश्वास (Faith in Spiritual Values) – आदर्शवादियों के अनुसार जीवन का लक्ष्य आध्यात्मिक मूल्यों तथा सत्यों को प्राप्त करना है। ये मूल्य हैं‐ (1) सत्य (2) शिवं तथा (3) सुन्दरम्। आदर्शवादियों के अनुसार मूल्य अमर हैं। जो मनुष्य इन आध्यात्मिक मूल्यों को जान लेता है वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता हैं। एस० रॉस का भी यही मत है- आदर्शवादियों के अनुसार सत्य, शिवं तथा सुन्दरम् निरपेक्ष गुण जिसमें से प्रत्येक अपनी आवश्यकता के कारण उपस्थित है तथा वह अपने आप में पूर्णतया वाहनीय है।


5. व्यक्तित्व के विकास का महत्त्व (Emphasis on Personality Development) - आदर्शवादी दार्शनिक मनुष्यों के व्यक्तित्त्व को अधिक मूल्यवान समझते हैं। अतः वे व्यक्तित्व के विकास पर विशेष बल देते हैं। उनके अनुसार व्यक्तित्व के विकास का अर्थ आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना है। प्लेटो का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श व्यक्तित्व होता है जिसको प्राप्त करने के लिए यह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। 


6. भिन्नता में एकता के सिद्धान्त का समर्थन (Unity in Diversity) – आदर्शवादी एकता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनका विश्वास है कि संसार की समस्त वस्तुओं में भिन्नता हुए भी एकता निहित है। इसी एकता को उन्होंने एक शक्ति, चेतना तत्त्व अथवा ईश्वर आदि विभिन्न नामों से पुकारा है।


7. सर्वोच्च ज्ञान आत्मा का ज्ञान है (Highest Knowledge is of the Self) — आदर्शवादी दार्शनिक आत्मा के ज्ञान को ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार यह ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा संभव नहीं बल्कि तर्क के द्वारा होता है। तर्क से प्राप्त ज्ञान वास्तविक होता है और वह मनुष्य के द्वारा सरलता से ग्राह्य होता है। 


आदर्शवाद के रूप (Forms of Idealism)


रॉस महोदय के अनुसार, आदर्शवाद के विविध रूप हैं।

 इनमें से कुछ प्रमुख रूपों का वर्णन प्रकार है-

1. आत्मनिष्ठ आदर्शवाद (Subjective Idealism) - आदर्शवाद के इस रूप का प्रतिपादक एवं प्रमुख समर्थक आइरिश दार्शनिक बिशप बर्कले ( Bishop Berkely) था। उसने तत्कालीन भौतिकवाद के दुष्परिणामों को देखकर आत्मनिष्ठ आदर्शवाद का समर्थन किया। उसके विचार से वस्तु का अस्ति केवल मन के कारण है, अपने आप नहीं वह बाह्य जगत को केवल मन का प्रत्यक्षीकरण मानता है। आत्मनिष्ठ आदर्शवाद के अनुसार, संसार एक मानसिक जगत है जहाँ पर विचारों का सर्वोच्च स्थान है। सत्य वास्तविकता (True Reality) मन ही है।


2. प्रपंचात्मक आदर्शवाद (Phenomenalistic Idealism ) — वर्कले के आत्मनिष्ठ आदर्शवाद को काण्ट (Kant) ने भी स्वीकार किया किन्तु उसने बर्कले के विपरीत वस्तु जगत का भी अस्तित्व स्वीकार किया है। इस कारण उसने प्रपंचात्मक आदर्शवाद का प्रतिपादन किया। काण्ट ने अन्तरात्मा अनुभव, कर्तव्य और नैतिक मूल्यों के जगत को वास्तविक माना है। उसका विचार है कि हम जो कुछ भी जानते हैं वह प्रपंचात्मक ज्ञान है इसके अतिरिक्त जो वास्तविक जगत है उसका हमको प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है।


3. निरपेक्ष आदर्शवाद (Absolute Idealism) - आदर्शवाद की इस विचारधारा के प्रतिपादक हीगल (Hegal) और प्रमुख समर्थक फिक्टे (Fichte) हैं। इस विचारधारा को परम् आत्मा का आदर्शवाद भी कहा जाता है। फिक्टे आत्मा की निरपेक्ष सत्ता को स्वीकार करता है। उसके अनुसार, 'समस्त सत्ता आत्म की है। हीगल के अनुसार, ब्रह्माण्ड एक महान 'विचार प्रक्रिया' (Thought Process) है। उसकी धारणा थी कि ईश्वर विचार करने वाला है, उसके विचार का बाह्य और दृष्टिगोचर होने वाला रूप ही यह भौतिक जगत् है।"(God is thinking and physical universe is thought externalized and made visible)".- Fichte


4. व्यक्तिगत आदर्शवाद (Personal Idealism)—आदर्शवाद के इस रूप के पोषक जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ यूकेन थे। व्यक्तिगत आदर्शवाद में उन्होंने प्रकृति एवं आत्मा को सक्रिय व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा जोड़ने का प्रयास किया है। व्यक्तिगत आदर्शवाद व्यक्ति के नैतिक आदर्शों पर बल देता है यह व्यक्ति के विकास पर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों पर भी विश्वास करता है। इसमें मानव प्राणी के जीवन को साधारण प्राणियों की अपेक्षा सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।


5. प्लेटो का आदर्शवाद (Platonic Idealism) — प्लेटो के आदर्शवाद में नैतिक मूल्यों को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। यह सौन्दर्यपरक एवं नैतिक मूल्यों के दर्शन के रूप में कार्य करता है। प्लेटो के आदर्शवाद को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है- "इसकी व्याख्या किये जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संसार में निरपेक्ष सुन्दर, निरपेक्ष शिव (अच्छाई) और निरपेक्ष महानता इत्यादि का अस्तित्व है। इस जगत् में हम जिस वस्तु को वास्तव में अच्छी या सुंदर देखते हैं वह इस कारण अच्छी या सुंदर है क्योंकि उसमें निरपेक्ष अच्छाई या सुन्दरता की प्रकृति का कुछ अंश है।"


आदर्शवाद और शिक्षा (Idealism and Education)


शिक्षा आदिकाल से ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से प्रभावित होती चली आ रही है किन्तु इस पर सबसे अधिक प्रभाव आदर्शवाद का पड़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद को प्रमुखता देने वालों में सर्वप्रथम प्लेटो (Plato), कामेनियस (Comenius), पेस्टालॉजी (Pestalozzi) और फ्रोबेल (Froebel) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने शिक्षा के अन्य अंगों की अपेक्षा उद्देश्यों पर अधिक बल दिया है और शिक्षा के निश्चित तथा उत्तम आदर्शों का निर्धारण किया है। 


(1) आदर्शवाद और शिक्षा के उद्देश्य (Idealism and Aims of Education)


आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा के अधोलिखित उद्देश्य हैं-

 1. मानव ईश्वर की सुन्दर एवं महानतम कृति है। इसलिये शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का विकास या आत्म-साक्षात्कार है।

2. बालक को आध्यात्मिक मूल्यों एवं सत्यों (Values and Truths) की अनुभूति कराना।

 3. बालक को सत्यं शिवं, सुन्दरम् के आदर्श वाक्य को अपने जीवन का आधार बनाना।

4. सांस्कृतिक घरोघर की रक्षा करना एवं उसमें योगदान देना।

5. बालक की बुद्धि एवं विवेक का विकास करना। 

6. बालक के जीवन में पवित्रता को प्रमुख स्थान देना।

7. बालक की मूल प्रवृत्ति को आध्यात्मिक प्रवृत्ति में बदलना।


(2) आदर्शवाद और पाठ्यक्रम (Idealism and Curriculum)

प्राचीन आदर्शवादी प्लेटो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य - सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के आदशों को प्राप्त करना है। इसलिए पाठ्यक्रम में उन सब विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो इन मूल्यों की ओर ले जाते हैं। मनुष्य की प्रमुख क्रियाएं बौद्धिक, कलात्मक और नैतिक हैं। बौद्धिक क्रियाओं के लिए पाठ्यक्रम में भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित और विज्ञान को स्थान दिया जाना चाहिए। कलात्मक क्रियाओं के लिए कला और कविता का अध्ययन आवश्यक है। नैतिक क्रियाओं हेतु पाठ्यक्रम में धर्म, नीति-शास्त्र, अध्यात्म-शास्त्र जादि का अध्ययन सम्मिलित होना चाहिए। 


(3) आदर्शवाद और शिक्षण विधियाँ (Idealism and Methods of Teaching)

आदर्शवादियों ने शिक्षा क्षेत्र में अनेक शिक्षण विधियों का विकास किया। प्लेटो के गुरु सुकरात ने वाद-विवाद, व्याख्यान तथा प्रश्नोत्तर विधियों को अपनाया। प्लेटो प्रश्नोत्तर विधि के साथ-साथ संवाद-विधि (Dialectic Method) का प्रयोग करते थे। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने आगमन (Inductive) तथा निगमन (Deductive) विधियों के प्रयोग पर बल दिया। आधुनिक आदर्शवादी विचारकों में हीगल ने तर्क विधि (Logical Method), पेस्टालॉजी ने अभ्यास विधि (Practice Method), हरबार्ट ने अनुदेशन निधि (Instruction Method) तथा फ्रोबेल ने सेन-विधि (Play-way Method) का विकास किया।


(4) आदर्शवाद व अनुशासन (Idealism and Discipline)

आदर्शवादी अनुशासन की स्थापना पर बहुत बल देते हैं। थॉमस और लैंग के शब्दों में "प्रकृतिवादियों का नारा 'स्वतन्त्रता है, जबकि आदर्शवादियों का नारा अनुशासन' है।" "Freedom is the cry of the Naturalists, while discipline is that of the Idealists." -Thomas and Lang.

लेकिन आदर्शवाद द्वारा समर्पित अनुशासन दमनात्मक न होकर प्रभावात्मक है। दूसरे शब्दों में आदर्शवादी बाह्य नियन्त्रण एवं शारीरिक दण्ड का विरोध करते हैं तथा पूर्णकाओं एवं के आधार पर ही अनुशासन की स्थापना चाहते हैं। 


विश्वास है कि बालक अनुशासन में रहकर ही आत्मानुभूति को प्राप्त कर सकता है। 


(5) आदर्शवाद और शिक्षक (Idealism and Teacher)

आदर्शवाद शिक्षक को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्रदान करता है। शिक्षक की छत्रछाया में ही बालक का आध्यात्मिक विकास सम्भव है। फ्रोबेल ने बालक की उपमा एक पौधे से तथा शिक्षक की उपमा एक माली से देते हुए बताया कि जिस तरह माली पौधे को आवश्यकतानुसार सींचकर तथा काट-छांटकर सुव्यवस्थित रूप से पनपाता है जिससे वह एक सुन्दर एवं मनमोहक वृक्ष में ढल सके, उसी प्रकार शिक्षक का दायित्व भी बालक रूपी पौधे की उचित देखभाल करना है। शिक्षक के महत्व का वर्णन करते हुए रॉस लिखते हैं- एक प्रकृतिवादी केवल कांटों को देखकर ही सन्तुष्ट हो सकता है, परन्तु आदर्शवादी सुन्दर गुलाब का पुष्प देखना चाहता है। इसलिये शिक्षक अपने प्रयासों से बालक को, जो अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है, उस उच्चता तक पहुंचाने में सहायता देता है, जहाँ तक वह स्वयं नहीं पहुँच सकता।"

"The naturalist may be content with brairs, but the Idealist wants fine roses. So the educatory by his efforts assists the educand, who is developing according to the laws of his nature to attain levels that would otherwise be denied to him"– J.S. Ross.


(6) आदर्शवाद एवं बालक (Idealism and Child)

आदर्शवाद के अनुसार बालक केवल शरीर ही नहीं है बल्कि वह शरीर से भी बहुत ऊपर है। वस्तुतः आदर्शवादी बालक को मन एवं शरीर दोनों मानते है जिसमें मन अधिक महत्त्वपूर्ण है। आदर्शवादी शिक्षा में आदशों व विचारों को सबसे अधिक महत्त्व देते हैं और यही कारण है कि वे शिक्षा को बालकेन्द्रित नहीं मानते हैं। उनके अनुसार बालक में उच्च आदशों को स्थापित करने के लिये उनमें अन्तर्दृष्टि या सूत्र का विकास करना ही शिक्षा का प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिये। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृतिवाद जहाँ शिक्षा को बाल-केन्द्रित बनाने में विश्वास रखता है वहाँ आदर्शवाद बालक को इस योग्य बनाने में विश्वास रखता है कि वह सूझ-बूझ के बल पर कठिन से कठिन चुनौतियों का स्वयं सामना कर सकें।


आदर्शवाद का मूल्यांकन (Estimate of Idealism)


आदर्शवाद का मूल्यांकन इसके गुण-दोषों के आधार पर निम्न प्रकार से किया जा सकता है


गुण (Merits) आदर्शवाद के प्रमुख गुण निम्न हैं- 

1. आदर्शवादी शिक्षा के अन्तर्गत बालकों में 'सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् जैसे गुणों का विकास किया जाता है, इसके फलस्वरूप उनमें उत्कृष्ट चरित्र का निर्माण होता है।


2. आदर्शवादी शिक्षा इस अर्थ में अद्वितीय है कि इसमें शिक्षा के उद्देश्यों की विस्तृत व्याख्या के गई है।


3. आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया है। यह बालक और समाज दोनों के लिये मंगलमय है।


4. आदर्शवादी शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है। यह शिक्षा उनकी रचना शक्तियों के विकास पर भी बल देती है।


5. यह शिक्षा आत्म-अनुशासन एवं आत्मनियन्त्रण के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करती है। यह दमनात्मक अनुशासन का विरोध करता है।


6. आदर्शवादी दर्शन के परिणामस्वरूप विद्यालय एक सामाजिक संस्था बन गया है। इसीलिये व्यक्तिव एवं सामाजिक मूल्यों को समान महत्त्व दिया जाता है।


 दोष (De-merits) —

 आदर्शवाद में प्रमुख दोष निम्न हैं-

1. आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य न केवल 'अमूर्त' हैं, वरन् इनका सम्बन्ध भी मात्र भविष्य से है। इस प्रकार यह शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक है और व्यावहारिक कम ।


2. आदर्शवादी पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक विषयों को ही प्रमुख स्थान दिया गया है जबकि आज के औद्योगिक युग में इनको आवश्यक नहीं समझा जाता । 


3. शिक्षण विधि के क्षेत्र में आदर्शवाद की कोई विशेष देन नहीं है। इसने कोई निश्चित शिक्षण विधि का प्रतिपादन नहीं किया है।


4. विचार और मन पर अधिक बल देने से इस शिक्षा में बौद्धिकता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है।


5. यह शिक्षा शिक्षक को तो बहुत ऊँचा स्थान देती है, किन्तु इसमें बालक का स्थान गौण है।


6. आदर्शवाद हमें जीवन के अन्तिम ध्येय की ओर ले जाता है जिसकी हमें तात्कालिक आवश्यकता नहीं है। इस समय तो हमारी आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान से ही मुख्य रूप से सम्बन्धित हैं।


प्रकृतिवाद (Naturalism)

 प्रकृतिवाद 
(Naturalism)


अर्थ (Meaning) - 

प्रकृतिवाद प्रकृति को मूल तत्त्व मानता है। यह अलौकिक और पारलौकिक को न मानकर प्रकृति को ही प्रमुख मानता है। इस दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु प्रकृति से जन्म लेती है और फिर उसी में विलीन हो जाती है। प्रकृतिवाद के अनुसार प्राकृतिक पदार्थ एवं क्रियाएँ ही सत्य हैं। प्रकृतिवादियों के अनुसार मनुष्य की अपनी एक प्रकृति होती है जो पूर्ण रूप से निर्मल होती है। इस प्रकृति के अनुकूल आचरण करने में उसे सुख तथा सन्तोष प्राप्त होता है तथा प्रतिकूल आचरण करने पर उसे दुःख और असन्तोष का अनुभव होता है। अतः उनके अनुसार मनुष्य को सदेव अपनी प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करना चाहिये। दूसरे शब्दों में, प्रकृतिवादी मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुकूल आचरण करने की स्वतन्त्रता देते हैं तथा वे उसे किन्हीं सामाजिक बन्धनों या नियमों में जकड़कर रखना नहीं चाहते। उनका मत है कि मनुष्य उन्हीं कार्यों को करेगा जिन्हें करने में उसे सुख की प्राप्ति होगी तथा जिन्हें करने से उसे दुःख अनुभव होगा, उन्हें वह नहीं करना चाहेगा। इस प्रकार प्रकृतिवादी नैतिकता के पक्षधर हैं।


प्रकृतिवाद के समर्थकों में अरस्तू, काम्टे, हॉब्स, डार्विन, हरबर्ट स्पेन्सर, हक्सले, बेकन, लैमार्क तथा रूसो आदि दार्शनिकों के नाम मुख्य हैं।

प्रकृतिवाद की मुख्य परिभाषाएँ निम्न हैं-


1. थॉमस तथा लैंग (Thomas and Lang) - "प्रकृतिवाद, आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है तथा यह विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता भौतिक है, आध्यात्मिक नहीं।"

"Naturalism is opposed to Idealism, subordinates mind to matter and holds that ultimate reality is material and not spiritual."


2. मॉरले (Morley) — "प्रकृतिवाद का सिद्धान्त है— सबसे प्रेम करना, मानव प्रकृति में पूर्ण विश्वास करना, न्याय की इच्छा करना तथा संतोष के साथ काम करना ताकि दूसरों का उपकार हो सके।" 


3. एनान (Anon) — "प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जो मनुष्य तथा जगत को भौतिक, यान्त्रिक तथा जैविक दृष्टि से देखती है, यौगिक अथवा आभास की दृष्टि से नहीं।" 

"Naturalism is a system that views mom and universe as physical, mechanical and biological and not yogical or dehypnotical."


4. जॉयस (Joyce)- "प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जिसकी प्रमुख विशेषता आध्यात्मिकता को अस्वीकार करना है अथवा प्रकृति एवं मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन में उन बातों को स्थान देना है जो हमारे अनुभवों से परे नहीं है।

"Naturalism is a system whose salient characteristic is the exclusion of whatever is spiritual or indeed whatever is transcendental experience from our philosophy of nature and man."


प्रकृतिवाद के रूप 

(Forms of Naturalism)


प्रकृतिवाद के तीन प्रमुख रूप -


1. पदार्थवादी प्रकृतिवाद (Physical Naturalism) - इस वाद के अनुसार मानव प्रकृति द्वारा पूर्ण रूप से नियन्त्रित रहता है। इस वाद के अन्तर्गत भौतिक संसार तथा मानव के बाहरी  वातावरण का अध्ययन किया जाता है। यह मानव अनुभवों की व्याख्या प्राकृतिक नियमों द्वारा करता है |


2. यन्त्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanical Naturalism) — इस वाद  के अनुसार सम्पूर्ण विश्व एक प्राण-विहीन तंत्र के समान है जिसका निर्माण पदार्थ तथा गति से हुआ है। यह वाद  मनुष्य  के चेतन तत्त्व की उपेक्षा करता है तथा मनुष्य को इस बड़े यन्त्र का एक पुर्जा मात्र मानता है।


3. जैविक प्रकृतिवाद (Biological Naturalism) - यह वाद डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त पर आधारित है, जिसके अनुसार मानव का विकास पशुओं से हुआ है तथा यह इस विकास प्रक्रिया का सर्वोच्च रूप है। जीवन के लिये संघर्ष' तथा 'Survival of the Fittest' इसके दो प्रमुख सिद्धान्त है।


 प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषतायें 

(Its Characteristics)


प्रकृतिवादी शिक्षा की निम्नलिखित विशेषतायें है—


1. प्रकृति की ओर लौटो (Back to Nature ) — प्रकृतिवादियों का विश्वास है कि का स्वाभाविक विकास केवल प्राकृतिक वातावरण में ही हो सकता है न कि विद्यालय के कृत्रिम वातावरण में। उनके अनुसार प्रकृति ही बालक की महान शिक्षक है। 


2. पुस्तकीय शिक्षा का विरोध (Opposition of Bookish Knowledge)- प्रकृतिवादियों ने पुस्तकीय शिक्षा का विरोध किया है। उनके अनुसार प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकों को रट लेते हैं जिससे उनका समय नष्ट होता है, मस्तिष्क कुण्ठित हो जाता है तथा उनको जन्मजात शक्तियां  स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हो पातीं। प्रकृतिवादियों के अनुसार मात्र पुस्तकें पढ़ा देना ही शिक्षा का कार्य नहीं है अपितु छात्र को स्वयं उसकी प्रकृति के अनुसार स्वयं विकसित होने के अवसर उपलब्ध कराये जाये। 


3. निषेधात्मक शिक्षा (Negative Education)—निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ गलतियों में बचाने वाली शिक्षा से है। यह शिक्षा प्रकृति ही प्रदान कर सकती है। गलती करने पर प्रकृति बालक को दण्ड देवी है जैसे—आग को छूने पर बालक का हाथ जल  जाता है तथा यह फिर कभी आग को नहीं छूता।


4. बाल केन्द्रित शिक्षा (Child-centerd Education)-प्रकृतिवादीओ ने बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना। उन्होंने कहा कि बालक का अपना अस्तित्व होता है, उसकी प्रकृति साधु के समान होती है, उसकी इन्द्रियों का दमन नहीं किया जाना चाहिये। बालक की आयु के अनुसार ही उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिये। अन्ततः शिक्षा बालक के लिये है, बालक शिक्षा के लिये नहीं।


5. स्वतन्त्रता (Freedom)- प्रकृतिवादी बालक की स्वतन्त्रता पर बल देता है। बालक को अपना विकास करने के लिये अपने भावों एवं विचारों को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये। उसके समक्ष ऐसा स्वतन्त्र वातावरण प्रस्तुत किया जाना चाहिये ताकि उसका विकास स्वाभाविक रूप से हो सके। रूसो कहता है-मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र हुआ है लेकिन वह हमेशा दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहता है। 


6. प्रगतिशीलता (Progressiveness) – प्रकृतिवादी बालक को एक गत्यात्मक प्राणी मानता है। यह प्राणी लगातार विकसित होता रहता है। शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था तथा प्रोविस्था ये बालक के विकास की चार अवस्थायें हैं। बालक की शिक्षा की व्यवस्था इन्हीं चार अवस्थाओं के अनुसार की जानी चाहिये। उनके अनुसार बालक से मनुष्य जैसा आचरण करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। रूसो कहता है, "प्रकृति चाहती है कि बालक मनुष्य बनने से पूर्व बालक ही रहे। यदि हम इस क्रम को बदलेंगे तो अगेते फल उत्पन्न करेंगे जिनमें न तो पकावट ही होगी और न ही गन्ध। 


7. बालक की इन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल (Training of Organs)- प्रकृतिवादी इन्द्रियों को ज्ञान का द्वार मानते हैं। ये कहते हैं कि ज्ञान को बेह्तर और प्रभावी बनाने के लिये बालक की इन्द्रियों का समुचित प्रशिक्षण आवश्यक  है |


प्रकृतिवाद एवं शिक्षा  

(Naturalism and Education)


प्रकृतिवाद एवं शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)

प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


1. वातावरण से अनुकूलन (Adjustment to Environment ) - प्रकृतिवादियों के अनुसार बालक में कुछ ऐसी जन्मजात शक्तियाँ होती हैं जिनके आधार पर वह अपने वातावरण के साथ अनुकूलन कर सकता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालक में ऐसी शक्तियों का विकास करना है जो उसे अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करने के योग्य बना सके।


2. बालक को संघर्षशील बनाना (To Prepare for Struggle) - डार्विन के अनुसार इस संसार में अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये प्रत्येक प्राणी को निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है, जो इसमें समर्थ होता है, उसी को विजय प्राप्त होती है। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालक को संघर्षमय परिस्थितियों का सामना करने के योग्य बनाया जाना चाहिये।


3. बालक के जीवन को सुखी बनाना (To make the child Happy ) - प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक में इस प्रकार की योग्यता एवं क्षमता का विकास करना है ताकि अपने वर्तमान जीवन को सुख एवं आनन्द के साथ व्यतीत कर सके। प्रकृतिवादी केवल वर्तमान की चिन्ता करते हैं, भविष्य की नहीं।


4. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना (All round Development )- प्रकृतिवाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में कुछ रुचियाँ, योग्यताएं एवं क्षमतायें होती हैं। ये सभी शक्ति होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य इन क्षमताओं को ठीक से विकसित करना है। दूसरे शब्दों में हम कहते हैं कि शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है।


5. मूल प्रवृत्तियों का शोधन (Sublimation of Instincts ) - प्रकृतिवादियों के अनुसार व्यक्ति बाल्यावस्था में अपनी मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर कार्य करता है। इसी क्रिया के फल व्यक्ति सुख एवं दुःख का अनुभव करता है। दुःखदायक क्रिया को यह पुनः नहीं करता। अतः शिक्षा उद्देश्य बालक की मूल प्रवृत्तियों में सुधार लाकर उन्हें समाजोपयोगी बनाना है।


6. मानव एक कुशल यन्त्र (Man as a Machine )—प्रकृतिवादियों के अनुसार विश्व विराट यन्त्र है तथा मानव इसका एक भाग है। इन प्रकृतिवादियों का मानना है कि शिक्षा का मानव व्यवहार को इस प्रकार विकसित करना है ताकि वह एक कुशल यन्त्र की भाँति कार्य कर साथ ही, प्रकृतिवादी यह भी मानते हैं कि प्राणी स्वयं में पूर्ण भी है।


7. सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना (To Preserve Cultural Heritage) - प्रकृतिवादियों के अनुसार एक जाति द्वारा अर्जित की गई सभ्यता एवं संस्कृति वंशगत होती रहती है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार विकसित की गई सभ्यता एवं संस्कृति में निरन्तर विकास करना है। 


प्रकृतिवाद एवं पाठ्यक्रम (Curriculum ) -

 प्रकृतिवाद के अनुसार पाठ्यक्रम निम्नलिखि सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये -


1. पाठ्यक्रम में विषयों का चयन बालक की प्रकृति, योग्यता, क्षमता एवं मूल प्रवृत्तियों में रखकर किया जाना चाहिये।

2. ऐसे विषयों को स्थान दिया जाये जो व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी हों।

3. धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले किसी भी विषय को पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिये।


प्रकृतिवाद एवं शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods ) — 

प्रकृतिवादियों ने निम्न शिक्षण विधियों को अपनाने की सलाह दी है— करके सीखना (Learning by Doing), अनुभव द्वारा सीखना (Learning by Experience), खेल द्वारा सीखना (Learing by Play), प्रत्यक्ष विधि, डि विधि, पर्यटन, डाल्टन प्रणाली, निरीक्षण विधि, मॉण्टेसरी पद्धति आदि ।


प्रकृतिवाद एवं बालक (Naturalism and Child ) -

 प्रकृतिवादी मानते हैं कि बालक स्वयं में एक पूर्ण इकाई है। वह योग्यता, रुचि आदि में अन्य बालकों से भिन्न होता है। अतः शिक्षा बालक की इन सभी योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिये। प्रकृतिवाद बालक में श्रेष्ठता का दर्शन करता है तथा उसी का विकास करना चाहता है।


प्रकृतिवाद एवं शिक्षक (Naturalism and Teacher ) - 

प्रकृतिवाद में प्रकृति को ही बालक का वास्तविक गुरु माना गया है। शिक्षक को इसमें गौड़़ स्थान प्रदान किया गया है। प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षक का कार्य बालक के विकास के लिये समुचित परिस्थितियों का निर्माण करना है। अध्यापक की भूमिका स्टेज के समान एक डायरेक्टर की सी होती है , जो पर्दे के पीछे से ही अपनी भूमिका निभाता है।


प्रकृतिवाद एवं अनुशासन (Naturalism and Discipline): 

रूसो के अनुसार बालक को कभी दण्ड नहीं दिया जाना चाहिये। गलती करने पर प्रकृति स्वयं उसे दण्ड देगी। जब बालक को किसी कार्य को करने से कष्ट अथवा दुःख महसूस होगा तो वह स्वयं ही उस कार्य को नहीं करेगा।


प्रकृतिवाद एवं विद्यालय (Naturalism and School ) —

वैसे तो प्रकृतिवादियों के अनुसार प्रकृति की गोद ही बालक का स्कूल है, फिर भी, यदि हमें सामाजिक विद्यालयों की स्थापना करनी ही पड़े तो ये विद्यालय प्राकृतिक नियमों पर आधारित होने चाहिये। भवन निर्माण ऐसा होना चाहिये कि इनमें प्राकृतिक वायु, प्रकाश आदि की समुचित व्यवस्था हो। साथ ही, विद्यालय का समय-विभाग-चक्र (Time Table) लचीला हो।


प्रकृतिवाद का शिक्षा में योगदान 

(Contribution of Naturalism in Educaion)


प्रकृतिवादी शिक्षा-सिद्धान्तों से शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं एवं शिक्षाको दिशा मिली है, जो इस प्रकार है-


1. बाल मनोविज्ञान का विकास (Development of Child Psychology)-प्रकृति ने बालक की प्रकृति के अनुसार शिक्षा की बात कहकर शिक्षा को मनोविज्ञान आधारित बना दिया। 


2. अनुभव-प्रधान पाठ्यक्रम पर बल (Experience based Curriculum)—प्रकृतिवाद अनुभव-प्रधान पाठ्यक्रम का समर्थन करता है जिसके अनुसार पाठ्यक्रम में बालक के अनुभवों को सम्मिलित किया जाता है तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर विशेष बल दिया जाता है। 


3. शिक्षण पद्धतियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण देन (Contriution to Teaching Methods)—प्रकृतिवाद ने बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार विकसित करने पर बल दिया जिनके परिणामस्वरूप शिक्षण पद्धतियों के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। विभिन्न शिक्षण पद्धतियाँ; जैसे—यूरिस्टिक पद्धति, डाल्टन पद्धति, निरीक्षण पद्धति, खेल पद्धति तथा मॉण्टेसरी पद्धति प्रकृतिवाद की ही देन हैं।


4. अनुशासन के क्षेत्र में दमन का निषेध (No to Harsh Punishment )—प्रकृतिवाद ने विद्यालयों में बालकों को दिये जाने वाले शारीरिक दण्ड का विरोध कर, बालक के लिए स्वाभाविक वातावरण में शिक्षा का प्रावधान कर शिक्षा को आनन्ददायक बनाया जिससे बालक उत्साहपूर्वक अधिकाधिक सीख सकें।


5. वैज्ञानिकता को शिक्षा में प्रधानता (Emphasis to Science ) - प्रकृतिवादियों ने ज्ञान का प्रमुख स्रोत विज्ञान को माना। परिणामतः विज्ञान के विषयों को पाठ्यक्रम में प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण स्थान मिला। इस तरह शिक्षा को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में सहायता मिली। 


6. विषय के स्थान पर बालक को प्रमुखता या बाल केन्द्रित शिक्षा (Child Centred Education)—परम्परागत शिक्षा-प्रणाली में विषय-प्रधान शिक्षा होने के कारण बालक उपेक्षित रह जाता था। उसका सम्यक संतुलित विकास नहीं हो पाता था। अतः बालक केन्द्रित शिक्षा के प्रवर्तन से शिक्षा-क्षेत्र में सभी दृष्टियों से बहुत लाभ हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृतिवाद बाल-केन्द्रित शिक्षा (Child-centred) पर अधिक बल देता है न कि पाठ्य-वस्तु केन्द्रित (Teacher-centred) अय्या अध्यापक केन्द्रित शिक्षा (Teacher centred) अर्थात्, हमारी सम्पूर्ण शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु छात्र होना चाहिये न कि कोई और। 

April 06, 2023

शिक्षा : अर्थ, स्वरूप एवं प्रकार (EDUCATION : MEANING, NATURE AND MODES )

शिक्षा : अर्थ, स्वरूप एवं प्रकार 

(EDUCATION : MEANING, NATURE AND MODES )


       शिक्षा का अर्थ 
(Meaning of Education)

'शिक्षा' शब्द संस्कृत भाषा की 'शिक्ष' धातु में प्रत्यय लगाने से बना है। 'शिक्ष' का अर्थ है सीखना और सिखाना । अतः 'शिक्ष' शब्द का शाब्दिक अर्थ हुआ-सीखने व सिखाने की क्रिया'शिक्षा' शब्द के लिए अंग्रेजी में 'ऐजुकेशन' (Education) शब्द का प्रयोग किया जाता है। ऐजुकेशन शब्द लैटिन भाषा के 'ऐजुकेटम' (Educatum) शब्द से विकसित हुआ है तथा 'ऐजुकेटम' शब्द इसी भाषा के ए (E) तथा इयूको (Duco) शब्दों से मिलकर बना है। (E) का अर्थ है— अंदर से, जबकि इयूको (Duco) का अर्थ है-आगे बढ़ाना। अतः 'ऐजुकेशन' शब्द का अर्थ है—अंदर से आगे बढ़ाना | प्रश्न यह उठता है कि अंदर से आगे बढ़ाने से क्या तात्पर्य है? वास्तव में प्रत्येक बालक के अंदर जन्म के समय कुछ जन्मजात शक्तियाँ बीज रूप में विद्यमान रहती हैं। उचित वातावरण के सम्पर्क में आने पर ये शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं, जबकि उचित वातावरण के अभाव में ये शक्तियाँ या तो पूर्णरूपेण विकसित नहीं हो पाती है अथवा अवांछित रूप ले लेती हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों को अंदर से बाहर की ओर उचित दिशा में विकसित करने का प्रयास किया जाता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि 'ऐजुकेशन' शब्द का प्रयोग व्यक्ति या बालक की आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करने अथवा विकसित करने की क्रिया के लिए किया जाता है। लेटिन के 'ऐजुकेयर' (Educare) तथा 'ऐजुशियर' (Educere) शब्दों को भी 'ऐजुकेशन' शब्द के मूल के रूप में स्वीकार किया जाता है। इन दोनों शब्दों का अर्थ भी आगे बढ़ाना (To Bring Up), बाहर निकालना (To Lead Out) अथवा विकसित करना (To Raise) है। स्पष्ट है कि शिक्षा तथा इसके अंग्रेजी पर्यायवाची 'ऐजूकशन' (Education) दोनों ही शब्दों का शाब्दिक अर्थ मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को आगे बढ़ाने वाली, विकसित करने वाली अथवा इनका वाह्य प्रस्फुटन करने वाली प्रक्रिया है। अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिक्षा शब्द का अर्थ जन्मजात शक्तियों का सर्वागीण विकास करने की प्रक्रिया से है।

शिक्षा के शब्द के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए विभिन्न विद्वानों के द्वारा शिक्षा के अर्थ के सम्बन्ध में प्रकट किए गए विचारों का अवलोकन करना आवश्यक होगा।

स्वामी विवेकानन्द मनुष्य को जन्म से पूर्ण (Perfect स्वीकार करते थे तथा उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य उसकी पूर्णता को प्रस्फुटित करना था। उनके शब्दों में- "मनुष्य की पूर्वनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना शिक्षा है।" 
"Education is manifestation of perfection already present in man."
                                                                                                -Swami Vivekanand


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने शिक्षा को व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यामिक विकास                       की प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया। उनके शब्दों में - "शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य,शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा के सर्वागीण सर्वोत्तम विकास से है। "

"By Education I mean an all round drawing out of the best in child and man-body, mind and spirit."       -Mahatma Gandhi

प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक सुकरात के अनुसार - "शिक्षा का अर्थ उन सर्वमान्य विचारो को         विकसित करना है जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में विलुप्त है।" 

"Education means the bringing out of the ideas of universal validity which are learnt in the mind of everyman."            -Socrates

अरस्तू ने शारीरिक तथा मानसिक विकास पर बल देते हुए कहा था कि - "स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है।" 

"Education is the creation of a sound mind in a sound body."        -Aristotle

हरबर्ट स्पेन्सर ने मनुष्य जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से तालमेल बैठाने पर बल देते हुए कहा कि - "शिक्षा से तात्पर्य अन्तर्निहित शक्तियों तथा बाह्य जगत के मध्य समन्वय स्थापित करने से है।" 

"Education means establishment of co-ordination between the inherent powers and the outer world."             -Herbert Spencer

जॉन डयूवी के शब्दों में- "शिक्षा, व्यक्ति की उन समस्त क्षमताओं का विकास करना है जो उसे अपने वातावरण को नियंत्रित करने तथा अपनी सम्भावनाओं को पूरा करने योग्य बनाएगी।" 

"Education is the development of all those capacities in the individuals which will enable him to control his environment and fulfill his possiblities."      -John Dewey

जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी ने जन्मजात शक्तियों के विकास के रूप में शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि- "शिक्षा व्यक्ति की समस्त जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, समरस तथा प्रगतिशील विकास है।"

 "Education is a natural, harmonious and progressive development of man's innate powers."                                                                                                                                    -Pestalozzi

प्लेटो—“शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की प्लेटो—“शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की प्रक्रिया ही शिक्षा है।"

 "Education is a process of physical, mental & intellectual development."         -Plato

ट्रो- शिक्षा, नियंत्रित वातावरण में मानव विकास की प्रक्रिया है।"
"Education is human development in a controlled environment."               -Trow

पेस्तालॉजी के शिष्य फ्रोबेल ने शिक्षा को निम्न शब्दों में पारिभाषित किया है - "शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को   वाह्य  शक्तियों का रूप देता है।" 

"Education is a process by which the child makes its internal external."      -Froebel

मेकेन्जी के शब्दों में - "व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन-पर्यन्त है तथा जो जीवन के प्रत्येक अनुभव से संबंधित होती है।" 

"In wider sense, it is a process that goes on throughout life and is promoted by almost every experience in life."      -S. S. Mackenzi



भारतीय संप्रत्यय  (Indian Concept)


“शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है।"        - उपनिषद्
   
"Education is that whose end product is salvation."     -Upnishads

“शिक्षा स्वयं की अनुभूति है।"         - शंकराचार्य

"Education is the realization of the self."       -Shankracharya


आधुनिक संप्रत्यय   (Modern Concept) 

"शिक्षा अन्तर्निहित ज्योति की उपलब्धि के लिये विकासशील आत्मा की प्रेरणादायिनी शक्ति है।"- अरविन्द घोष

"Education is helping the growing soul to draw out that is in itself."     -Aurobindo Ghosh


"शिक्षा का अर्थ बालक को इस योग्य बनाना है कि वह शाश्वत सत्य की खोज कर सके, उसे अपना बना सके, और उसकी अभिव्यक्ति कर सके।"             - टैगोर

"Education means to enable the child to find out the ultimate truth...... making truth its own and giving expression to it."     -R.N. Tagore 


"शिक्षा चैतन्य रूप में एक नियंत्रित प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाये जाते हैं और व्यक्ति के द्वारा समूह में।"        - ब्राउन


"Education is the consciously controlled process whereby changes in behaviour are produced in the person and through the person within the group."       -Brown 


शिक्षा की विशेषताएँ
(Characteristics of Education)


"Plants are developed by cultivation and man by Education."     -Locke 

शिक्षा की उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर शिक्षा की अधोलिखित विशेषताएं कही जा सकती हैं-

1. शिक्षा केवल विद्यालयों में प्रदत्त ज्ञान तक ही सीमित नहीं है। 
   (Education is not limited to knowledge imparted in schools)

2. शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
   (Education is a life-long process).

3. शिक्षा बच्चे की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करती है। 
   (Education Develops the inherent powers of a child.)

4. शिक्षा एक गत्यात्मक प्रक्रिया है। 
    ( Education is a dynamic process.)

5. शिक्षा एक द्विध्रुवीय  प्रक्रिया है। 
    (Education is a Bi-polar process.)

6. शिक्षा एक त्रिचुची प्रक्रिया है।
   (Education is a Tri-polar process.)

7. शिक्षा व्यवहार में सुधार तथा चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया है। 
   (Education is a process of modifying behaviour and character formation.)

8. शिक्षा एक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार की प्रक्रिया है।
   (Education is a Direct and Indirect process both.) 

9. अनुभवों में संवर्धन में सहायक।
   (Enrichment of Experiences.)

10. व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक। 
   (All round development of the individual.)

11. वातावरण से समायोजन की प्रक्रिया। 
   (A process of adjustment with the environment.)


द्विध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा 
(Education as a Bi-polar Process)


जैसा कि पहले बताया गया है, शिक्षा एक प्रक्रिया है, न कि एक आदेश (prescription)। इस प्रक्रिया में दो व्यक्ति सम्मिलित होते हैं—शिक्षक और शिक्षार्थी। दोनों के मध्य पारस्परिक क्रिया होती है, उनके प्रयत्नों का परिणाम शिक्षा होती है। इस प्रकार शिक्षा एक 'सहभागी गतिविधि या अनुभवों का साझा करना बन जाती है। एडम्स (Adams) इसे द्विध्रुवीय प्रक्रिया कहते हैं। "इस प्रक्रिया में शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य निरंतर पारस्परिक क्रिया होती रहती है और दो ध्रुवों की पारस्परिक क्रिया की भाँति दो व्यक्तियों का परस्पर प्रभाव होता है। इस प्रकार शिक्षा एक संचेतन (conscious) और सोची-समझी प्रक्रिया बन जाती है जिसमें सम्प्रेषण (communication) और ज्ञान के परिचालन (manipulation) द्वारा एक व्यक्तित्त्व दूसरे व्यक्तित्त्व के विकास में परिवर्तन लाने के लिए उस पर कार्य करता है। एक बालक भी शिक्षण और अधिगम प्रक्रिया में एक सक्रिय सहभागी होता है। Ross लिखते हैं, “एक चुम्बक की भाँति शिक्षा के अवश्य ही दो ध्रुव होने चाहिएं।" (Like magnet education must have two poles).

शिक्षा की दो-ध्रुवीय प्रकृति के बारे में विवेचन करते हुए एडम्स (Adams) शिक्षा की प्रक्रिया के दो पक्षों, व्यक्तिनिष्ठ (subjective) और विषयपरक (objective) के बारे में बताते हुए कहते हैं कि उनके विचार में, शिक्षा तब व्यक्तिनिष्ठ बन जाती है जब शिक्षार्थी शिक्षक की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता है और सीधे उसके द्वारा दिए गए उद्दीपनों (stimuli) के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। सामान्यतः ऐसा ही होता है। दूसरी ओर शिक्षा तब विषयपरक (objective) बन जाती है जब शिक्षार्थी शिक्षक के प्रयोजनों को समझता है और कभी-कभी अपने विवेक का प्रयोग कर उसे चुनौती देता है या उसका विरोध भी करता है। ऐसा कभी कभार ही होता है। इसलिए एडम्स कहते हैं, "अधिकतर विद्यार्थियों के अनुभव में शिक्षा व्यक्तिनिष्ठ और विषयपरक, दोनों क्षेत्रों में पूरे समय दो-ध्रुवीय रहती है।"

अध्यापक- ध्रुव    →  एक व्यक्तित्त्व दूसरे व्यक्ति के विकास को परिवर्तित करने के लिए उस पर क्रिया करता है। 


शिक्षा दो ध्रुवीय   →  प्रक्रिया सचेतन (conscious) और सोची-समझी भी होती है।
 होती है।


छात्र-ध्रुव          →    शिक्षक  के व्यक्तित्त्व और ज्ञान के इस्तेमाल का सीधा प्रभाव अध्यापक से छात्र की ओर प्रवाहित ज्ञान दोनों को जोड़ता है। इसका साधन परस्पर परिचर्चा है।  



त्रि- ध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा 
(Education as a Tri-Polar Process)


शिक्षा के आधुनिक मत को 'तीन-आयामी' कहा जाता है। यह बताया जाता है कि सम्पूर्ण शिक्षा समाज में और सामाजिक व्यवस्था में घटती है। J.E. Adamson ने शिक्षा के तीन-ध्रुवीय सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार शिक्षा का सार बालक व बालक के संसार के मध्य समायोजन है। समायोजन की प्रक्रिया सक्रिय और निष्क्रिय, दोनों प्रकार की होती है। बालक अपने वातावरण द्वारा प्रभावित होता है और साथ ही  वह वातावरण को प्रभावित करता है और उसे आकार देता है। 


शिक्षा के प्रकार 
(Forms of Education)


शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह औपचारिक, अनौपचारिक तथा निरोपचारिक के रूप में जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। यह एक व्यापक संप्रत्यय है जिसमें विभिन्न स्रोतों जैसे रेडियो, समाचारपत्र, टेलीविजन, शिक्षा संस्थाओं आदि से प्राप्त ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है। एक सामान्य व्यक्ति इसे शिक्षा संस्थाओं में प्राप्त शिक्षा के रूप में ही समझता है जो निश्चित रूप से अन्य स्रोतों से प्राप्त शिक्षा से सर्वथा भिन्न है। शिक्षा शास्त्रियों ने शिक्षा के निम्नलिखित प्रकारों का वर्णन किया है-

1. सामान्य शिक्षा (General Education ) — शिक्षा का प्रमुख कार्य माध्यमिक स्तर तक बालक को सामान्य शिक्षा प्रदान करना है और यही हम शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भी मानते हैं। यह शिक्षा का निम्नतम स्तर है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आवश्यक होता है। यह बालक को उचित व्यवहार करने के योग्य बनाती है। इसका उद्देश्य बालक की सामान्य योग्यताओं का विकास करना है ताकि उसके व्यक्तित्व का विकास हो सके तथा वह वातावरण में समायोजन के योग्य बन सके। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् सर्व शिक्षा को मुक्त तथा आवश्यक बना दिया गया है।

2. विशिष्ट शिक्षा (Specific Education) - वर्तमान युग विशिष्टीकरण का युग है। एक व्यक्ति सभी क्षेत्रों में विशिष्ट नहीं हो सकता। यदि बालक को उसके जन्मजात गुणों, योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुरूप विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जाए तो उसे अपनी योग्यताओं के विकास के लिए उत्तम अवसर प्राप्त होंगे। इसका उद्देश्य एक व्यक्ति को किसी एक विशेष कौशल में कुशल में कुशल बनाना है। यह समाज के प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट प्रशिक्षित व्यक्ति प्रदान करती है। इस प्रकार यह राष्ट्र के विकास के साथ-साथ उसके कल्याण में भी सहायक होती है। यह विशिष्ट संस्थाओं में जैसे मेडिकल महाविद्यालयों, इंजीनियरिंग महाविद्यालय, तकनीकी संस्थाओं, प्रबन्धन संस्थाओं, कम्प्यूटर केन्द्रों आदि में प्रदान की जाती है।

3. प्रत्यक्ष शिक्षा (Direct Education ) - इस प्रकार की शिक्षा में शिक्षक तथा शिक्षार्थी में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रत्यक्ष प्रभाव विद्यार्थी पर पड़ता है। जहाँ विद्यार्थियों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है वहाँ यह शिक्षा सम्भव नहीं होती क्योंकि ऐसी कक्षा में अध्यापक के लिए प्रत्येक विद्यार्थी के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए रखना कठिन हो जाता है। यही कारण है कि आज के समय में कक्षा के आकार को छोटा रखने पर बल दिया जाता है।

4. अप्रत्यक्ष शिक्षा (Indirect Education) — वर्तमान युग में अप्रत्यक्ष शिक्षा अस्तित्व में आई क्योंकि जन संचार के विकास के कारण महान शिक्षाशास्त्रियों के विचारों को उन लोगों तक पहुँचाना सम्भव हो गया है जो इन लोगों के प्रत्यक्ष सम्बन्ध में कभी नहीं आए। इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय पूरे विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में अप्रत्यक्ष शिक्षा प्रदान कर रहा है। बहुत से अन्य विश्वविद्यालय भी दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम चला रहे हैं। उच्च स्तर पर रेडियो, टेलीविजन आदि शिक्षण के लिए अधिक प्रसिद्ध हो रहे हैं। आज के समय में कोई भी व्यक्ति यदि इंटरनेट की सहायता से सूचना प्राप्त करना चाहता है, कर सकता है। इस प्रकार की शिक्षा पश्चिम में अधिक प्रसिद्ध होती जा रही है।

5. व्यक्तिगत शिक्षा (Individual Education)- मनोवैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि सभी व्यक्ति एक जैसे नहीं होते हैं, इसलिए इस बात पर बल दिया जा रहा है कि शिक्षक को व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक बालक का ध्यान रखना चाहिए। रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा शान्तिनिकेतन में किया गया प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है, परन्तु यदि इसे बड़े पैमाने पर शिक्षा विधि के रूप में अपनाया जाए तो यह पूर्ण रूप से अव्यावहारिक होगी। प्राथमिक स्तर पर किन्डरगार्डन पद्धति, मॉन्टेसरी पद्धति बच्चे पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने की उच्च पद्धतियों है।

6. सामूहिक शिक्षा (Collective Education) - जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि यह शिक्षा एक स्थान पर सामूहिक रूप से इकट्ठे हुए व्यक्तियों को दी जाने वाली शिक्षा है। एक अध्यापक जब एक से समय पर एक बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थियों को शिक्षा देता है तो ऐसी शिक्षा समय तथा धन के क्षेत्र में मितव्ययी बन जाती है। भारत की जनसंख्या जिस गति से बढ़ती जा रही है ऐसी परिस्थितियों में यही शिक्षा उपयुक्त मानी जाती है।

7. संकुचित शिक्षा (Narrow Education)—यह विद्यालय तथा विश्वविद्यालय शिक्षा तक सीमित है। जब बालक शिक्षा संस्था में प्रवेश लेता है, तब से यह आरम्भ होती है तथा शिक्षा संस्था छोड़ने पर समाप्त हो जाती है। यह आकस्मिक न होकर नियोजित होती है। इसमें अध्यापक तथा विद्यार्थी में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इस प्रकार की शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त संकुचित होता है।

8. व्यापक शिक्षा (Wider Education ) - यह एक जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा है। यह जन्म से प्रारम्भ होकर जीवन भर चलती रहती है। इसमें शिक्षा के सभी अभिकरणों औपचारिक, अनीपचारिक तथा निरोपचारिक से प्राप्त अनुभव सम्मिलित होते हैं। समाज का प्रत्येक सदस्य एक समय में अध्यापक के रूप में तथा दूसरे समय में विद्यार्थी के रूप में कार्य करता है। इस प्रकार की शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।

9. औपचारिक शिक्षा (Formal Education ) - औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा है जो कुछ निश्चित उद्देश्यों तथा आदशों के अनुरूप संगठित होती है। यह एक विशेष समय अवधि के लिए, विशेष समय पर, निश्चित पाठ्यक्रम के अनुसार बालक को औपचारिक ढंग से प्रदान की जाती है। शिक्षा देने का कार्य विशेष क्षेत्र में विशिष्ट व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है। इस क्षेत्र में बालक को सामान्य, विशिष्ट एक व् तथा प्रत्यक्ष शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा विद्यार्थी औपचारिक संस्थाओं में प्राप्त करता है। शिक्षा क्रमबद्ध रूप से प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षा एक ही समय में बड़ी संख्या में विद्यार्थियों शिक्षा को वैज्ञानिक ढंग से तथा सतत् प्रदान की जा सकती है।


10. अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)—यह औपचारिक शिक्षा की पूरक है जिसके बिना शिक्षा अपूर्ण है। यह प्राकृतिक तथा आकस्मिक होती है। इसके परिणामस्वरूप बिना किसी साथ समझे प्रयास के व्यवहार में अचानक तथा आवश्यक रूप से परिवर्तन आता है। यह एक जीवन पर्यन्त प्रक्रिया है जिसमें सभी अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के योग्य हैं। इसके लिए कोई आयु निश्चित नहीं होती। इसमें स्थान तथा समय निश्चित नहीं होता। इस प्रकार की शिक्षा में कोई पूर्व निश्चित पाठ्यक्रम तथा उद्देश्य नहीं होते। चालक अनुभवों से सीखता है तथा इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान औपचारिक शिक्षा की अपेक्षा अधिक स्थायी रहता है। ऐसी शिक्षा किसी संगठित अभिकरण के द्वारा प्रदान नहीं की जाती। इसको बनाने के लिए वित्तीय साधनों की आवश्यकता नहीं होती।

11. निरोपचारिक शिक्षा (Non-formal Education)- औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनो यह औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के बीच की कड़ी है। इसका मुख्य केन्द्र बिन्दु विद्यालय से बाहर की दुनिया है तथा इसके कार्यों में जन शिक्षा, कौशलों, तकनीकों तथा जीवन शैली में सुधार के लिए शिक्षा सम्मिलित की जाती है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास के फलस्वरूप ज्ञान में विस्फोट के कारण इस संप्रत्यय का विकास शिक्षा के विकास पर अन्तर्राष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट 'लर्निंग टू बी' के प्रकाशन के पश्चात् हुआ। इस समिति के द्वारा यह महसूस किया गया कि शिक्षा पर इतने वित्तीय साधनों के खर्च करने के पश्चात् भी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग शिक्षा से वंचित रह जाता है। वे जीविका कमाने में व्यस्त रहते हैं, इसीलिए वे निश्चित समय में औपचारिक शिक्षा संस्थाओं में प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिए समिति के द्वारा यह सुझाव दिया गया कि ऐसे लोगों के लिए, जो शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक हैं, अवकाश के समय में उचित शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए।

भारत में इस प्रकार की शिक्षा अत्यावश्यक है। परिणामस्वरूप बहुत से कार्यक्रम जैसे-प्रौढ़ शिक्षा, पत्राचार शिक्षा, मुक्त विश्वविद्यालय से शिक्षा आदि प्रारम्भ किए गए हैं। उनके उद्देश्य समाज के प्रत्येक वर्ग का सामाजिक तथा आर्थिक विकास करना है। यह जीवन केन्द्रित तथा वातावरण आधारित है तथा व्यक्तियों को भविष्य में परिवर्तन के लिए तैयार करती है।

April 02, 2023

Theories of Personality- Theory of Formal Discipline, Theory of Identical 'Components' Rather Than 'Elements' and Theory of Identical Components the Basis for Social Utility Movement



 Theory of Formal Discipline 


The notion that the mental dell. orl (extra) blank faculties can be developed uniformly as a whole by training in one subject or on one kind of data has been known in education as "the theory of formal discipline." The term 'formal' implies that it is the form of the activity and not its content, not the subject-matter itself, that is important in education. If the activity is of the form of memorizing, it is assumed that memory could be trained no matter what is memorized. To learn to reason, one has merely to practice the forms of reasoning. The term 'discipline' implies the real spirit of the theory which is that the major virtues of a tenacious memory, an in flexible will, pure and impersonal judgment and reason are to be secured only by very vigorous and full exercise of the faculties.


Theory of Identical 'Components' Rather Than 'Elements'


It has been discovered that, on the whole, the carry-over from one situation to another is roughly proportional to the degree of resemblance in the situations. This conclusion suggested the possibility that transfer takes place to the extent to which there are identical elements in the old and new tasks. If the relatively novel situation in part or in parts identical with the familiar stimulus pattern, then it should be possible to carry over from the one to the other the reactions which the individual had learned to make to those particular conditions.


As the literature on transfer of training developed, the term 'identical element' unfortunately came to be used in an atomistic sense It was used to refer to highly detailed elements to extremely narrow common units: almost, at times, to indivisible entities. However, more careful treatments of the problem did not use the word 'element' in this narrowly atomistic sense. 'What the theory of identical elements demands' writes Woodworth. "is that transfer should be of concrete performances, whether simple or complex, makes no difference to the theory. Confusion will be avoided by using the word constituent' or 'component' in place of 'element' and by speaking of the theory of identical components."


The theory of identical components, then, would not predict that practice in tennis would improve one's attention, concentration, will, or temperament for meeting all situations or dealing with all kinds of data equally, but would affirm that certain skills, procedures, and attitudes such as judging the fight of a ball, remembering to keep one's eye on the ball, and to keep cool by thinking of the game instead of the spectators would carry over to another activity such as handball to the extent, roughly, that the two games and the general situations have important characteristics in common. What sorts of responses, according to the theory of identical components, may transfer? Or, expressed in another way, what kinds of components may two or more activities or situations have in common? 


1. Transfer of Facts Information

 Not only do we transfer attitudes and procedures to new tasks, but we also may utilize knowledge gained in a given situation in other situations. This is what is presumed to happen when the child uses his knowledge of the simple addition combinations in performing column addition Previous knowledge may provide cues for the solution of new problems in geometry. Historical information may make the literature of a period more understandable. Psychological principles may be applied in writing attention-getting leads for newspaper stories. With information, as with other responses, the amount of transfer, according to the theory of identical comports, is determined by the common features of the original learning activities and the situations where knowledge is applied. In many instances little transfer occurs because the individual fails to detect the underlying similarities in the situations which confront him; often, in fact, because he fails to try to find such similarities.


2. Transfer of Techniques of Reacting

During practice in memorizing, subject may learn a variety of methods of attack upon the particular subject-matter. For example, if he is learning a list of items. he may hit upon the technique of repeating them rhythmically, a procedure which he may use with lists of different things. He may find that searching for certain of the items to use as landmarks is profitable, and this device may be used on other materials, in some cases advantageously, and in others disadvantageously. Again the subject may use the plan of learning by the whole rather than the part method, and this procedure may be adapted to other kinds of material. From experience, he may discover that his 'memory' is not so bad, and this feeling of confidence may recur whenever any task of memorizing is presented. On the other hand, he may acquire habits of using ineffective associations, of disliking such work, of doubting his capacity to improve. When transferred, these activities would interfere with the learning of new data. What is carried over, then, from the point of view of identical components, is not an improved faculty of memory, but group of new devices, ideas, attitudes-in a word, a new technique, which may be good or bad in whole or in parts.


Theory of Identical Components the Basis for Social Utility Movement

The principle that transfer takes place through identical components provided the psychological basis for the social utility movement in education. If the amount of transfer depends upon t the presence of common features, it is obviously important to make the activities of the school as nearly as possible like those which actually occur in life. The transfer of methods of attack, of knowledge and insights, techniques of learning and problem solving, interest, poise, habits and ideals of caution, honesty, accuracy thoroughness, initiative, etc., to the situations of life will be large, supposedly, to the degree that the subject-matter and activities of the classroom are similar to those encountered in life outside the school.

The social utility movement has turned the attention of the school to the real and significant concerns of human living, and away from unreal or fantastic problems and trivial and impractical information. Some of the results of this emphasis on reality in the school are attempts to determine what words we need to spell in the writing which we actually do: what arithmetical knowledge and ability we need to use what historical and scientific information is essential or worth-while to know; what problems in relation to health, recreation, public affairs. home membership, vocational orientation and training and personal and social adjustment we must solve in satisfying and helpful living The modern school gives students opportunities to put useful knowledge and abilities to work in meaningful and life-like situations.

Personality- Personality: Its Concept, Meaning, Nature, Definitions, Characteristics/Features of Personality and Determinants of Personality/Development of Personality/Factors Influencing or Affecting Personality,



Personality


Introduction


Psychology of personality is of recent growth. Personality is the completed jigsaw puzzle as the whole individual is to be studied as a whole, personality means the impact that an individual produces on the persons interacting with him or it refers to the extent to which a person impresses other people. It also refers to special characteristics, abilities, emotional and social traits, interests and attitudes of a person or can be described in terms of behaviour of an individual, his words. thoughts and gestures.


Personality: Its Concept, Meaning and Nature


The word personality has been described by many psychologists in different ways and each definition suggests a different approach towards personality.

Etymologically the word 'personality' has been derived from the Latin word 'Persona' which means mask or make up or cover through which an actor plays his role on the stage. Persona was meant a mask which the Greek actors commonly used to wear before their faces when they worked on the stage. For example, actors in Ramlila and Krishnalila use mask when they enact the role of a particular character from the epics.

This idea of mask using has been criticised in many ways because one plays many roles in this world. Thus the emphasis on outward appearance and observable behaviour gives us a very limited understanding of the individual to whom we are observing. In order to understand personality and its proper connotation, we have to take help from Biology. Sociology, Psychology and other allied Sciences. The following are the different view points to define personality.


Definitions


1. Watson defines "Personality is the sum of activities that can be discovered by actual observations over a long enough period of time to give reliable information".


2. Guilford defines "Personality is the unique pattern of traits which distinguishes one individual from another".


3. Munn defines "Personality is the most characteristic integration of an individuals structures, mode of behaviour, interests, attitudes, capacities, abilities and aptitudes".


4. Eysenck defines "Personality is the sum-total of actual behaviour patterns of the Organism". Personality is the more or less stable and enduring organisation of a person's character, temperament, intellect and physique, which determine his unique adjustment to the environment. 


5. Gestalt school defines "Personality as a pattern or configuration produced by the integrated functioning of all the traits and characteristics of an individual". 


6. Allport has attempted to give us a comprehensive definition of personality which recognises the value of wholeness, adjustment and distinctiveness of human personality. He defines "Personality is the dynamic organisation within the individual of those Psycho Physical systems that determine his unique adjustments to his environment".


Characteristics/Features of Personality


Personality is a sum total of various human qualities. Following are the chief characteristics of a balanced personality.


1. Personality is something unique and specific.

2. Personality is a dynamic and moving force. 

3. Personality includes all the behaviour patterns, i.e.. cognitive, conative and affective and covers not only the conscious activities but goes deeper to the semi- conscious and unconscious also. 

4. Personality has a structure.

5. Personality cannot be judged by only looking at his physical appearance rather it is the study of totality. 

6. Personality is the product of heredity and environment. 


Determinants of Personality/Development of Personality/Factors Influencing or Affecting Personality


1. The Physiological and Physical Factors

(Genetic or Biological Determinants)


The biological factors affecting the development of personality are the three. These are (a) Physique, (b) Chemique (Ductless Gland) and (c) Nervous system.


(a) Physique

A Physical factor of personality is the individual's physique. An individual's personalty differ according to his physique. These aspects are height, weight, body-built, colour appearance and proportion, etc., which determine to a large extent the way in which he behaves towards others and how others react towards him. It is seen that in daily life the fat men are easy going and social while thin persons are self controlled, irritated and un-social. Even tall and fair persons enjoy an advantage over their short and ugly associates. Thus the physical structure has some relation with environment and makes a change in their personality.


(b) Chemique

Another important biological factor affecting personality is body chemistry. By chemique is meant the possible effects of the ductless glands on the personality development. Glands are small organs which change chemical substances from one form to another in the body. These glands are of two types (a) duct glands, (b) ductless glands. Ductless glands called endocrines releases chemical substances (called hormones) into the blood stream which carries them to all parts of the body. The endocrine glands (ductless glands) bring about changes in physical appearance, motor functioning. intelligence and emotional stability. Some of the important ductless glands like the Pituitary Gland, the Thyroid Gland, the Adrenal Gland and Sex Glands are Interdependent. The individuals with profound imbalance of ductless glands are rarely happy or well-adjusted and play an important part in bodily, mental and emotional development and if defective, imbalanced development of personality.


(c) Nervous System

Similarly the nervous system is mainly classified as Central Nervous System which is under the control of our will and is connected with our sense organs and voluntary muscles; and Autonomous Nervous System which is entirely involuntary and autonomic and controls the involuntary muscles, heart, internal organs, etc., causes Personality development. The Physiological conditions of the body brought about by drugs. disease, diet, toxins and bacterial infections may also influence our behaviour and personality. 

Hence heredity lies at the root of all the possibilities of personality development.


II. The Environmental or Social Factors 

(Social Determinants)


Environmental influences begin since the time of the conception of the child in the womb of the mother. Mother's mental, physical and emotional conditions influence the development of fetus in the womb. Physical and geographical conditions of the environment play an important role in shaping the personality of human beings at every stage of the development. The type of home atmosphere, parent-child relationship, financial conditions, types of school and the community or society, etc., are some of the factors of environment which affect the personality. The following are the description of social factor as personality.


(a) Influence of Home and the Family on Personality

The environment of the home has a wide influence on the development of personality. A congenial home atmosphere, parent-child relationships, behaviour and attitudes of the parents towards their children, parental ambitions, family morale, patterns of child care, family education and economic conditions either affect the personality positively or negatively. Thus the role of the father and mother is very important in the family to determine and mould the personality patterns of the child.

Besides the role of the parents, the atmosphere in the family is greatly influencing. A peaceful and loving atmosphere results in children being orderly, peace-loving and very affectionate and develop mature and pleasant personalities. Whereas in a family where there is tension, constant quarrelling, incompatibility among parents, the child is likely to develop insecurity, inferiority and becomes emotionally confused and unstable. Rigid atmosphere, deprivation, autocratic styles of living, absence of affection and sympathy. affect adversely and the child often turns criminal. Thus, the child's personality is a creation of family and its development is fully dependent upon the child's parents and the child himself at home.


(b) Influence of School on Personality

School plays an important role in moulding the personality of children because a significant part of a child's life is spent in school. In school the personality and behaviour of the teacher, class fellows and playmates, the richness of the curriculum, co-curricular activities, method of teaching. nature of school organisation, and discipline that prevails, etc.. are affecting the child's personality. The child tends to identify himself with the teachers and tries to imitate his ways, manners and personality traits. Thus a good teacher and the congenial atmosphere in the institution develop the child educationally and mentally and helps in formulating balanced personality development otherwise undesirable and unethical behaviour could have been found out with the children.


(c) Influence of Society on Personality

Society is a web of social relationship. These social relationship connect men and women with one another. These inter personal relations influence and mould the personality of the individual. In the society each individual has some peculiar status and roles corresponding to him. It is found out that social control is exercised by mores, traditions, myth. legends, customs, etc., and determine the style of life of an individual. The individual cannot behave in the society as he likes because there are rules, regulations, norms and law to govern the individual. Therefore, social norms influence even the ways and attitudes of the individual. This ultimately influences his personality.


III. The Psychological or Mental Factors

The Psychological factors like motives, interests. attitudes, character, thinking, intelligence, reasoning, imagination, creativity, habits and mental health, etc.. developed by the individuals also affect their personality to a great extent.


IV. The Cultural Determinants

Every society is characterized by its cultural heritage which is transmitted from generation to generation in the form of social heredity. Thus personality of an individual is gradually shaped by the culture where he is born in. Tyler defines culture is "that complex whole which includes knowledge, beliefs morals, law, custom and many other capabilities and habits acquired by man as a member of society". In simple sense culture is a way of life. It is also a fact that we are able to distinguish one person from the other on the basis of the effect of his culture over their personality characteristics. Thus, the attributes and values practised in a culture have a great effect on the personality development of its members.

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