October 10, 2023

प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकृति| शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ, शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा, परिभाषाएँ, सामान्य विशेषताएँ

 प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Management) 

प्रबन्ध एक व्यापक एवं जटिल शब्द है। यह इतना व्यापक है कि इसे आधुनिक औद्योगिक जगत में कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है। प्रबन्ध की विचारधारा इतनी जटिल है कि, प्रायः विद्वान इसे अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और उद्देश्य के संदर्भ में काम चलाऊ आधार पर परिभाषित करते हैं। विभिन्न विद्वानों एवं लेखकों ने प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए उसकी परिभाषा को अपने-अपने तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसीलिए इसको कोई सर्वग्राह्म तथा सर्वमान्य परिभाषा आज तक नहीं बन पाई है। सकीर्ण अर्थ में, सर चार्ल्स रेनोल्ड के अनुसार, प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है। इस दृष्टि से प्रबन्ध का आशय समुदाय के एक अधिकरण द्वारा अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने से लिया गया है।


विस्तृत अर्थ में, जार्ज आर. टेरी के अनुसार, प्रबन्ध से आशय उस कला तथा विज्ञान से लिया गया है, जो कार्यकुशल तरीके से एक व्यवसाय के उद्देश्यों को प्राप्ति में योगदान करता है। इस अर्थ में, एक संस्था तथा उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों के संगठन, निर्देशन, नेतृत्व एवं नियन्त्रण के कार्यों को प्रबन्ध को संज्ञा दी गई है है


इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति प्रबन्ध को सामाजिक प्रयासों को व्यवस्था मानते हैं। इनका कहना है कि जब संस्था में एक से अधिक व्यक्ति कार्य करते हैं तभी उनके कार्यों का नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियन्त्रण करना आवश्यक होता है ताकि संस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। इस प्रकार सामान्य लक्ष्यों को प्राप्ति हेतु सामूहिक प्रयासों का नियोजन संगठन, समन्वय, नियन्त्रण एवं निर्देशन हो प्रबन्ध कहलाता है।


प्रबन्ध की कतिपय प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-


प्रो. आर.सी. डेविस के शब्दों में – “प्रबन्ध कार्यकारी नेतृत्व का कार्य है, यह संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसकी क्रियाओं के आयोजन, संगठन तथा नियन्त्रण का काम है।"


ई. एफ. एल. बेच के अनुसार –"प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी उपक्रम के निर्धारित उद्देश्य अथवा कार्य को पूरा करने के हेतु क्रियाओं का प्रभावपूर्ण आयोजन एवं नियमन करने का उत्तरदायित्व सन्निहित है।""


जी. ई. मिलवर्ड के अनुसार – "प्रबन्ध प्रक्रिया और ऐजेन्सी है जिसके माध्यम से नीतियों का क्रियान्वयन नियोजन, और पर्यवेक्षण किया जाता है।"


जॉर्ज आर. टैरी ने प्रबन्ध परिभाषित करते हुए लिखा है – कि "प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें नियोजन, संगठन, उत्प्रेरण एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं। इनमें से प्रत्येक में कला एवं विज्ञान दोनों का प्रयोग करते हुए पूर्व निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनुवर्तन किया जाता है।"


सी. डब्ल्यू. विलसन के अनुसार –"प्रबन्ध एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानवीय शक्तियों के प्रयोग एवं निर्देशन की प्रक्रिया है।"

जी. ई. मेकफारलैण्ड के अनुसार –"प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक उद्देश्यपूर्ण संगठनों का व्यवस्थित, संतुलित एवं सहकारितापूर्ण मानवीय प्रयासों के द्वारा सृजन करते हैं, निर्देशन करते हैं, बनाए रखते हैं तथा संचालन करते हैं।" 

पीटर एफ. ड्रकर के शब्दों में – "प्रबन्ध एक बहुउद्देशीय तत्व है जो एक व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबंधकों का प्रबन्ध करता है तथा कार्य करने वालों का प्रबन्ध करता है।"


प्रो. जॉन एफ. मी. के मतानुसार – "प्रबन्ध से आशय न्यूनतम प्रयासों द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने की कला से है जिससे कि नियोक्ता एवं नियोक्ति दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि एवं खुशहाली तथा जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवा संभव हो सके।"


प्रबन्धन की विशेषताएँ (Characteristics of Management)

(i) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की कला तथा विज्ञान है।

 (ii) इसमें व्यक्तियों तथा कार्यकर्त्ताओं को समूह में संगठित रूप में कार्य कराया जाता है। सामूहिक क्रियाओं को बढ़ा दिया जाता है।

(iii) प्रबन्धन को कार्य कराने की ज्ञान की एक शाखा अथवा अनुशासन माना जाता है।

(iv) प्रबन्धन में मानवीय तथा भौतिक स्रोतों में समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया है।

(v) प्रबन्धन पर्यावरण को बनाये रखने तथा उसे बनाने का कार्य करता है। (vi) प्रबन्धन को मानव विकास की प्रक्रिया भी मानते हैं।

(vii) प्रबन्धन में निम्नांकित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं—


(a) नियोजन की प्रक्रिया (Planning),

(b) उद्देश्यों का प्रतिपादन (Formulation of Objectives),

(c) व्यवस्था करना (Organization of Tasks)

(d) निर्देशन करना (Instructing the Tasks)

(e) नियुक्तियाँ करना (Appointing Workers)

(f) सम्पादन तथा समन्वय करना (Executing and Coordinating) 

(g) मूल्यांकन तथा नियन्त्रण करना (Evaluation and Controlling )

(h) कार्यकर्त्ताओं को प्रोत्साहित करना (Encouraging) |इन सभी क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं को उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धन में सम्पादित करते हैं।


प्रबन्धन की प्रकृति (Nature of Management)


प्रबन्धन की प्रकृति बदलती रहती है। पहले 'प्रबन्धन' तथा 'स्वामित्व' को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करते थे परन्तु आज तकनीकी एवं औद्योगिक युग में इनके अर्थ एवं प्रकृति भिन्न हैं। प्रबन्धन की प्रकृति इस प्रकार है—


(i) प्रबन्धन एक कला तथा विज्ञान है और एक अध्ययन का क्षेत्र भी है।


(ii) प्रबन्धन एक विकास का साधन तथा अधिकार तंत्र भी है।


(iii) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की सार्वभौमिक प्रक्रिया है।


(iv) प्रबन्धन व्यक्तियों के संगठित समूह से कार्य कराने का एक तंत्र है।


(v) प्रबन्धन एक व्यवसाय/ पेशा है, इसकी अपनी आचार-संहिता है।


(vi) प्रबन्धन पर्यावरण की गुणवत्ता बनाये रखने का कार्य है।


शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ

(Meaning of Educational Management)

आज वैज्ञानिक युग में प्रबन्ध शब्द का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है और शिक्षा के क्षेत्र में तो प्रबन्ध ने क्रांतिकारी परिवर्तन किया है।

शैक्षिक-प्रबन्ध दो शब्दों-संयुक्त है-शैक्षिक (शिक्षा) एक प्रबन्ध (व्यवस्था) अतः शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ हुआ शिक्षा प्रक्रिया की व्यवस्था का प्रबन्ध करना। प्रबन्ध में यह देखा जाता है शिक्षा व्यवस्था से संबंधित कार्य कैसे, कब एवं किस प्रकार से किए जाते हैं। प्रबन्ध में योजना बनाने, निर्णय लेने,व्यवस्था करने कर्मचारियों का चयन करने, उनको प्रशिक्षण देने, आवश्यक साधनों का ज्ञान करवाने नियोजन करने प्रेरणा देने, संगठनात्मक कार्य करने, कार्य का मूल्यांकन करने एवं सुधार करने आदि सभी संबंधित पक्षों का वर्णन होता है। 

"प्रबन्ध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम तरीका क्या है?" एम. डबलू सर


शिक्षण एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल को सेवाएं धन के बदले छात्रों को देता है। इस प्रक्रिया को सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है। विद्यालयी प्रबन्ध में मानव (शिक्षक छात्र) मशीन (विद्यालयी साधन उपकरण) माल (शैक्षिक प्रक्रिया) निष्पत्ति, मुद्रा बाजार (शुल्क) अर्थव्यवस्था तथा मानव शक्ति है।


नियोजक तथा संगठन (प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, छात्र, कर्मचारी, अभिभावक इन सबको गतिशील बनाए रखता है। शैक्षिक प्रबन्ध के प्राचीन एवं आधुनिक अर्थ को समझने के लिए दोनों कालों को शिक्षण व्यवस्थाओं को समझना आवश्यक है।


वैदिक काल में विद्यार्थी गुरुकुलों व आश्रमों में गुरुओं से शिक्षा पाठ करते थे उस समय के शिक्षक वेतनभोगी नहीं होते थे क्योंकि उनका लक्ष्य सेवा एवं स्थान का था। अ उस समय की शिक्षा-व्यवस्था एवं संस्था को शिक्षक व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्राप्त कर स्वयं चलाते थे।


बौद्ध काल में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है


शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा
(Concept of Educational of Management)


मानव द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया किसी न किसी प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है। यह प्रक्रिया इतनी व्यवस्थित होती है कि यदि इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किया जाए। तो उसके परिणामों में परिवर्तन आ जाता है।


वर्तमान शिक्षा की अवधारणा में दो प्रकार के परिवर्तन हुए हैं- (1) शिक्षा, मानव विकास की सशक्त प्रक्रिया के साथ-साथ राष्ट्र विकास एवं जनशक्ति नियोजन का आधार बन गई है। 

(2) यह एक मानवीय व्यवसाय के रूप में विकसित हो रही है। यह व्यवसाय अन्य व्यवसायों से भिन्न है। इसमें शिक्षक, शिक्षा के द्वारा मानव विकास के लिए किए गए श्रम का मूल्य लेता है। यह व्यवसाय, एक मिशन (सेवा कार्य) के रूप में है जिसका सम्पूर्ण लाभ समाज तथा राष्ट्र को मिलता है। शिक्षण व्यवसाय में प्रबन्ध का विशेष महत्व है।


हेने के अनुसार शिक्षा एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल की सेवाएं, धन के बदले छात्रों को देता है। छात्र, शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान तथा कौशल का उपयोग करके अपनी क्षमताओं का विकास करते हैं। शिक्षा एक प्रबन्ध है शिक्षा यद्यपि  जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है।


शिक्षा के क्षेत्र में की गई व्यवस्था ही शैक्षिक प्रबन्ध है शैक्षिक प्रबन्ध एक विशेष क्रिया है। मानव समूह तथा संस्थाओं के संचालन के लिए अर्थात् विद्यालय के कर्मियों तथा विद्यालयी संस्था के संचालन के लिए शैक्षिक प्रबन्ध का होना अत्यन्त आवश्यक है। उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में व्यवस्था की यह प्रक्रिया "प्रबन्ध" कहलाती है और शिक्षा के क्षेत्र में यह प्रक्रिया “ प्रशासन" कहलाती है। प्रशासन में व्यक्ति अपने पद के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। प्रचलित अवस्था में "प्रबन्ध" शब्द उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। 

में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है 

शैक्षिक प्रबन्धन की परिभाषाएँ
(Definitions of Educational Management)


शैक्षिक प्रबन्ध के विषय में अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी राय दी है, कुछ विद्वानों के कथनों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-


गैंड तथा शर्मा - (Gande and Sharma ) - " शैक्षिक व्यवस्थापन एक बहुत व्यापक अर्थ वाला विषय है। यद्यपि विद्यालय व्यवस्था शैक्षिक व्यवस्थापन के अन्तर्गत ही एक विषय है परन्तु आमतौर पर शैक्षिक व्यवस्थापन से हम शिक्षा की नीतियों का निर्धारण, उनका संचालन और उनका मूल्यांकन आदि विषयों का ही बोध पाते हैं। शिक्षा व्यवस्थापन के अन्तर्गत शिक्षा की योजना बनाना, उसके लिए उचित व्यवस्था करना, उसका संचालन करना, नीति और साधनों का समायोजन करना तथा नियंत्रण एवं मूल्यांकन करना ये पांच तत्व आते हैं। यद्यपि ये पांचों तत्व एक दूसरे से बंधे हुए हैं तथापि उनका कुछ अंश तक पृथक-पृथक क्षेत्र है।"


कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार – "भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं के निर्मित हो रहा है।" उक्त शब्दों में गणतंत्र के लिए योग्य नागरिक तैयार करने में शिक्षण संस्थाओं के कुशल प्रबन्ध का महत्व स्वीकार किया है जिसके द्वारा विद्यालयों में अनुकूल वातावरण निर्मित कर 'शैक्षिक उद्देश्यों की सम्प्राति' करने में सहायता मिलती है। किसी विद्यालय की सफलता उसके 'प्रबन्ध' और 'व्यवस्था' पर निर्भर है। अतः लाभकारी एवं प्रभावपूर्ण शिक्षा के लिए 'विद्यालय प्रबन्ध' या संगठन अपना आवश्यक है।"


किम्बाल एवं किम्बाल— "प्रबन्धन उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उद्योग में मनुष्य में और माल को नियन्त्रित करने के लिये चालू आर्थिक सिद्धान्त को प्रयोग में लाया जाता है।"


कुन्दज- 'औपचारिक समूहों में संगठित लोगों से काम कराने की कला का नाम से है।"


शिक्षा प्रबन्धन की सामान्य विशेषताएँ
(Characteristics of Educational Management


शैक्षिक प्रबन्ध की विशेषताएं या आयाम इस प्रकार हैं-


(1 ) नियोजन व्यवस्था- शैक्षिक प्रबन्ध की सबसे प्रमुख विशेषता नियोजित व्यवस्था है। विद्यालय में सम्पूर्ण व्यवस्था पूर्ण नियोजित होती है अन्य शब्दों में सारे कार्य क्रमबद्ध एवं नियोजित तरीके से किए जाते हैं। यह शैक्षिक प्रबन्ध की ही नहीं बल्कि सभी प्रबन्धों की महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है।


(2) Educational management is a coordinating resource-

शैक्षिक प्रबन्ध, शिक्षा के विभिन्न साधनों में समन्वय करता है तथा एकीकरण के द्वारा वह शिक्षा की प्रक्रिया को सफल बनाता है। इसमें छात्र-छात्राएं, शिक्षकों आदि से संबंधित व्यवस्थाएं होती हैं।


(3) शैक्षिक प्रबन्ध एक समूहवाचक संज्ञा है - इसमें एक व्यक्ति या संस्था निहित नहीं होते हैं। शैक्षिक प्रबन्ध में समूह निहित होते हैं, जो अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। प्रबन्ध एक जटिल अर्थ वाली प्रक्रिया है, इसका सम्बन्ध अधिकारियों से है। यह एक विज्ञान है और साथ ही एक प्रक्रिया भी है, प्रबन्ध में अधीनस्थों से काम कराया जाता है।


(4) प्रबन्ध एक सामाजिक क्रिया है-लारेन्स एप्पले के अनुसार-प्रबन्ध, व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन, प्रबन्ध वास्तव में कर्मचारी प्रशासन हैं, विद्यालयों में इसीलिए अनेक व्यक्ति अनेक प्रकार के कार्य करते हैं जो विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का सृजन करते हैं।


(5) शैक्षिक प्रबन्ध एक अदृश्य कौशल है यह कोई दिखाई देने वाला तत्व नहीं है। यह तो ऐसा कौशल है, जिसे उसके परिणाम से जाना जाता है। किसी विद्यालय में लोग अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए इसलिए लालायित रहते हैं कि वहाँ का परिणाम उत्तम रहता है। परिणाम का उत्तम रहना, उत्तम प्रबन्ध कौशल पर निर्भर करता है ।

(6)  मूलरूप से किया है-शैक्षिक प्रबन्ध मूलरूप से यह क्रिया है, जो कार्य को सम्पादन कराती है। इसका सम्बन्ध मानवीय सम्बन्ध, भौतिक संसाधन तथा पति से होता है।


(7) एक सार्वभौमिक क्रिया है- शैक्षिक प्रबन्ध किसी भी कार्य को दिशा देने में सदा सहयोगी रहा है और यह सार्वभौम है। नियोजन, संगठन, नियंत्रण तथा निर्देशन आदि सभी सार्वभौमिक प्रकृति के कार्य है। प्रबन्ध का कार्य प्रबन्धक को करना पड़ता है।


(ङ) प्रबन्ध एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है-शैक्षिक प्रबन्ध किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। बच्चों को शिक्षा देने के उद्देश्यों से स्थान, सामान, कर्मचारियों, उपकरणों की व्यवस्था की जाती है। इनका सबका (सबका उद्देश्य लक्ष्य प्राप्त करना है।


( 9 ) प्रबन्ध का दीचि काम कराना है- यह स्वयं कार्य न करके कार्य कराता है। प्रधानाचार्य स्वयं बहुत कम पढ़ाते हैं किन्तु प्रत्येक शिक्षक से कार्य लेते हैं, और गैर- शैक्षिक कर्मचारियों द्वारा शैक्षिक सुविधाएं जुटाने एवं वातावरण का निर्माण कराने में सहयोग लेते हैं।


(10) अनवरत् चलने वाली प्रक्रिया- इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि यह अनवरत रूप से चलती रहती है। इसमें योजना, निर्णय करने, संगठन, निर्देशन, समन्वय आदि के बारे में निरन्तर कार्य किए जाते रहते हैं। उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त शैक्षिक प्रबन्ध की अन्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-


(12) इसका सम्बन्ध प्रबंधक या प्रशासक की नीतियों को क्रियान्वित करने से है। यह संगठन का पृथक अंग है। इसमें वे सभी व्यक्ति तथा कार्य आते हैं जो उद्देश्य प्राप्ति के लिए क्रियाशील होते हैं।


इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रबंध वह शक्ति है, जो संगठन में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नेतृत्व प्रदान करती है तथा सभी का मार्गदर्शन करती है।

October 01, 2023

Preparation of Blue Print of Achievement Test Or Construction of Achievement Test

 Preparation of Blue Print of Achievement Test Or Construction of Achievement Test


Preparation of Blue Print of achievement test is very important for examination in English because it consists of objective type of questions indicating the number of items in each cell. It is prepared in accordance with objectives of teachings, subject-matter in curriculum and types of questions by determining quantitative weightage and organizing the questions in three dimensional chart. This is known as blue print of test. While constructing the achievement test, based on blue print, the following things should be kept in mind


(i) Individual differences.


(ii) Questions should be balanced.


(iii) Results should be same.


(iv) Language in the scoring key should be easy.


(v) Maximum children should be able to attempt it.


Steps in Preparation of Blue Print


Step-1-Instructional Objectives: The objective is to test the knowledge, understanding, application and skill of the students. In languages, the major objectives are categorized as knowledge, comprehension and expression.


Step-2-Design: It specifies weightages to:

(a) Weightage of Teaching Objectives: Generally, test should be for the fulfillment of all objectives of teaching. So prior to the preparation of the test all the required weightage on objectives of teachings should be determined:



(b) Weightage to Content Units: While preparing blue print of achievement test, it is necessary to cover, entire subject-matter so it becomes essential to determine weightage, keeping in view the extension of different subject-matter, and the importance pertaining to the subject-matter. If the topics in subject-matter are large in number, then it will be convenient to classify the topics into units.


Weightage to content units




(c) Weightage to the Different Forms of Questions: After determining marks on objectives and content unit, it is essential to pay attention on the types of questions for test. So it should also be determined as to how many of the questions of each type (essay type/short answer objectives) are to be prescribed and what weightage should be laid on them.




(d) Weightage to Difficulty Level: It should also be noted that the level of the questions should neither be very difficult nor very easy. The questions level should grow from easy to difficult gradually. They should be divided into three levels. Easy questions should be at first, average questions in middle and difficult questions in the last. According to difficulty level, weightage can be determined.


Step-III-Blue Print: A blue print is a distribution of the weightage that various aspects of English should have in a test specially constructed for it. It is a pre-requisite at the planning stage. It helps to guide a teacher in constructing a test. It indicates the weightage to be given to various skills and the types of test.


Blue Print of English I paper of class X for the Examination of Board of Secondary Education




Audio-Visual Aids In The Teaching Of English

AUDIO-VISUAL AIDS IN THE TEACHING OF ENGLISH


In teaching, the teacher conveys some concepts to students When to convey the concepts more efficiently and successfully to students, the help of some verbal-visual material things is taken, those things are called audio-visual aids. The rationale is to appeal to eyes and ears of pupils and make the learning easy as well as permanent. It is the era of audio-visual aids in Education. Prof. C. S. Bhandari opines, "Our aim of teaching English is to import certain skills without making the process of teaching and learning monotonous." Here audio-visual aids come as rescue. Although a teacher is the best audio-visual aid, he does need some other audio- visual aids to supplement him. These aids help him in imparting good instruction. F. W. Noel is right when he says, "Good instruction is the foundation of any educational programme. Audio- visual training aids are a component part of that foundation." Hence, an English teacher should know about the various audio-visual aids he can use successfully in teaching English.


Types of Audio-Visual Aids :


The different types of audio-visual aids can put into three categories:


(a) Audio Aids: All those materials which function as aids by appealing to the ears only are called audio aids. They are usually used to form speech habit. 


The following are the main audio aids :

1. Gramophone, Linguaphone and Headphone

2. Tape-recorder.

3. Radio


(b) Visual Aids: Material aids which appeal only to eyes are called visual aids. Some visual aids are:


4. Text-book

5. Black-board.

6. Flannel-board

7. Flash-cards

8. Pictures

9. Charts maps. figures and models

10. Slides and films strips.

11. Epidiascope.


(c) Audio-Visual Aids: These are the aids which appeal to both ears and eyes. These aids are expensive. The following are included in it:


12. Film

13. Television


The use of all these aids in teaching English is described in the following lines


1. Gramophone, Linguaphone and Headphone: 

These aids are very useful in teaching students to speak English and correct pronunciation. The linguaphones assist in learning English sounds. Gramophones and linguaphones are cheaper than other audio aids. In them, records are available with booklets. They repeat speech patterns with correct pronunciation, intonation etc. over and over again. The material is carefully selected and graded. One record is worth three complete lessons. Linguaphones are also used to teach grammatical structure, poetry, usage, etc. Such records can be available from the English Language Teaching Institute, Allahabad. The English teacher should know the technique of stopping and restarting the records. The headphones solve the problem of dealing with individual students. With this he can attend each student.


2. Tape-recorder: 

It is a costly aid. It records the words uttered by a speaker. Those words can be reproduced later on as many times as desired. In teaching English, it can be used for the following purposes :-

(a) Speech-correction.

(b) Reading a talk, story, play, poetry, pronunciation of different word, etc.

(c) Reading improvement

(d) Musical appriciation.

(e) Sound knowledge.

(f) Teacher's comments on film strips and slides etc.


Tape-recorders should be used for well selected material and it should be presented stage by stage. But the teacher must know that by writing them off and on, he can spoil the effect. Pointing towards the importance of gramophone and tape-recorder, S. R. Ingram has said, "If used intelligently, the gramophone and the tape-recorder can help the teacher to provide a wider range of linguistic experience, variety in material and style and a real stimulus to individual effort."


3. Radio: 

Radio is a useful aid in language learning, since comprehensive courses in language learning are presented by radio. It can prove more useful by:


(i) The co-operation between educational and broadcasting authorities.

(ii) Recording radio broadcasts.

(iii) Making the broadcasting programme known to pupils

(iv) Adjusting the periods of English with the broadcast.


The following are the merits of radio as an aid :-


(i) It helps in developing comprehension by listening.

(ii) It gives the correct spoken language.

(iii) It presents the lectures of outstanding speakers.

(iv) It can be used inside as well as outside the class-room.

(v) It is cheaper.


But the following are the main demerits of radio :-


(i) Repetition is not possible.

(ii) Adjustment between English periods and broadcasting time becomes very difficult.

(iii) Children sometimes find it uninteresting due to impersonal touch.


4. Text-book: 

It is an aid as well as a method. In olden days, too, books served as aids. These days, text-books are according to the curriculum prescribed for a class. A text book should have the following qualities:-


(i) The subject-matter should be based on students' liking and interest. 

(ii) The matter should be graded properly.

(iii) The subject-matter should be practical. 

(iv) Books should be attractive and illustrative.

(v) These should cover the objectives of teaching English. 

(vi) At the end, sufficient exercises should be given

(vii) They should be well printed but not costly.


5. Black-board: 

It is the cheapest aid which can be handled easily. Almost in every school, in every class, there are black-boards. They are of different types such as wall, standing, reversible. The boards should be in light green colour which, soothes eyes. This aid can be used for the following purposes in English teaching :-


(i) For exposition and explanation of words.

(ii) For teaching structures.

(iii) For teaching grammatical forms.

(iv) For teaching writing.

(v) For writing sentences, answers and compositions.

(vi) For drawing figures and pictures.

(vii) Finally, for testing.


The teacher should follow the following suggestions in order to make the black-board a useful aid -


(i) The board should be put in a correct place. Every student of the class should be in a position to see it.

(ii) The teacher should write in straight lines with agreeable space

(iii) Coloured chalks should be used for drawing sketches and pictures

(iv) The black-board writing should be legible.

(v) While writing on the board, some attention should be given to the class

(vi) The board should be cleaned before leaving the class.

(vii) Too much use should be avoided.


6. Flannel-board: 

It is also called a flannelgraph or felt-board. It can be made easily A board of plywood is covered with flannel or felt. The board should be 60 cm x 90 cm. Figures, pictures, pieces of papers etc. with sand paper on their backs can be stuck to it. They can be easily removed. It can be used for:


(i) Teaching reading.

(ii) Teaching story

(iii) Teaching word and sentence

(iv) Teaching oral composition.


As the teaching proceeds, pictures, figures, words and sentences written on pieces of paper are demonstrated by the teacher one by one on the flannel-board.


7. Flash-cards: 

Flash-cards are like playing-cards or post- cards. They can be 15 inches long and 2 or 3 inches wide. They are made of soft thick papers. On them, pictures are made with illustrative words or sentences written below them. They can also help in mastering correct word order and speech habits.


8. Pictures: 

These are widely used and are very useful aids in teaching English. There is an old Chinese saying, "A picture is worth ten thousand words." According to Ruskin, "A room without pictures is like a house without windows." In teaching English, pictures of schools, shop, market, fair, railway station, post-office, river, mountain, man, boys, girls, festivals and picturesque scenes can be shown to the class for teaching: 

(i) vocabulary 

(ii) structures 

(iii) com- position and 

(iv) dramatization. 


Pictures can be of these kinds :


(a) Picture-postcards

(b) Snap-shots

(c) Cutouts from newspapers and periodicals and

(d) Wall pictures.


Advantages of Pictures Some of various advantages of pictures in English teaching are as follows:


(i) They are useful in Direct Method. Pupils can easily form an association between the word and its meaning.


(ii) The help in developing aesthetic sense.


(iii) They also help in developing observation and imagining powers of students


(iv) They are the means of giving concrete form to abstract things.


(V) They are based on psychological principle of interest,


Some Suggestions

Following are some suggestions to make pictures more useful as a teaching aid


(i) They should not be overused.

(ii) They should be put at a place from where pupil can see them.

(iii) Pictures should be bright and colourful.

(iv) They should be clear contrast of light, colour and out- line with a lot of life and movement in the scenes.

(v) They should have a clear bearing over the lesson.


9. Figures, Charts, Maps, and Models: 

Within figures come sketches and diagrams Figures and charts are valuable aids. They are neither costly nor difficult to handle. The teacher can draw them on the board or on paper. They supplement the work of pictures. Things which cannot be taught with pictures and are not clear through a picture can be taught by figures and charts Vocabulary, grammar, stories, sentence structures can be taught through them. Maps can be used in teaching about cities, countries, rivers, mountains, oceans, seas, etc. Models are used to give an illusion of reality. They are made of clay, plastic, cardboard, paper, rubber word etc. They can facilitate Direct Method According to F. G French, "We can use the models for telling stories, for conversation. and for making the abstract language feel."


10. Slides and Filmstrips Slides and filmstrips are other useful aids for showing objects and actions. Slides are single, whereas filmstrips exhibit a series in a compact and economical form.  They can prove efficient in teaching (1) sentence structure (i) oral and written composition of life, society and culture of peoples of different countries and (iv) stories. The educational slides are available from the Directorate of Extension, Programmes for Secondary Education, New Delhi and foreign embassies. 


11. Epidiascope: 

It is an easily operating apparatus which projects the enlarged images of objects whether opaque or not by reflection on to a screen or wall. It can be used for 


(i) teaching composition, calligraphy, structures, story,

(ii) revising lesson and

(iii) projecting maps, pictures, figures charts, pages from book, extracts, solid objects.


Its advantages are:


(i) There is no need of enlarging pictures, etc

(ii) Small pictures can be easily stored than large ones

(iii) Teaching becomes interesting.


12. Film: 

Film is an expensive but very useful aid. It appeals not only to eyes cars, but also emotions. A film is full of colour, movement and new ideas. For educational purpose, they can be used for:


(i) to teach phonetics and pronunciation,

(ii) to show English stories, plays and novels,

(iii) to acquaint pupils with the life, custom and culture of different countries,

(iv) to acquaint them with wild life and

(v) to teach them through the lives of great people.


13. Television: 

Television is an expensive aid. It appeals to both ears and eyes. It has all the advantages of a radio plus the advantages of visual pictures. It is available only at some privileged schools these days. It can be used for all those purpose in English teaching for which a radio is used.


Advantages of Audio-Visual Aids :


(i) They create interest for learning in students.

(ii) They are time saving, because they explain the idea easily and precisely.

(iii) By their use, the burden of the teacher is reduced.

(iv) The teacher can improve his own English by aural aids, students.

(v) They are the sources of a variety of experiences for

(vi) They are bases of Direct Method.

(vii) English is a difficult language. Audio-visual aids make learning English easy.

(viii) A good English teaching is possible only in a English environment. Audio-visual aids help in creating that type of environment


Limitations of Audio-Visual Aids 


(i) Some aids such as television are costly and cannot be afforded by many schools.

(ii) They give an impersonal effect which is not mach effective

(iii) The teachers are required to know the technical skill handle them.

(iv) Some teachers overuse them.


Some Suggestions:


(i) They should be used only where they are needed. Overuse should always be avoided.

(ii) Teachers should use the cheaper ands efficiently, if y ones cannot be procured.

(iii) When the purpose is fulfilled, they should be removal. 

(iv) They should be according to the age and harmonal development of students,

September 28, 2023

Audio Lingual Method or The Structural Approach- Meaning, Types of Structure, Procedure of teaching, Principles, Aims, Characteristics, Merits & Demrits

 Audio Lingual Method or The Structural Approach


This approach came into existence in the sixties in Tamil Nadu and was further popularized by Central Institute of English Hyderabad. This approach has found recognition in the schools of Uttar Pradesh under the guidance of the English Language teaching Institute Allahabad.


The structural approach is the result of researches made in the field of teaching English as a foreign language. The American linguists supported this method. They regarded English as a living and evolving thing and not merely as a form of expression. It is also known as "Aural Oral Approach", "Aural Linguistic Approach" and "Structural Approach"


The Aural-Oral Approach means, "teaching a language by giving opportunities to the students to hear and speak the language." 

"Structural approach is a scientific study of the fundamental structures of the English language, their analysis and logical arrangement."-Brewington 

Menon and Patel has defined it as "the structural approach is based on the belief that in the learning of a foreign language, mastery of structures is more important than the acquisition of vocabulary."


The Structural Approach is based on the belief that in the learning of a foreign language, mastery of structure is more important than the acquisition of vocabulary. It is believed that learning through listening and speaking is much suitable to the students. 


Structures are the baste language patterns (there are about 275 of language patterns which constitute the core). Every structure embodies an important grammatical point. Structures are graded in a manner that each structure follows naturally from the one immediately preceding. Drills form an important part of the structural approach.


Types of Structures 


Structures are tools of a language. They should not be confused with sentences Structures had not to have any grammatical background, whereas sentences are grammatical order of words Structures can be divided into following four categories


1. Sentence Patterns: A sentence pattern is a model for sentence, which will be of the same shape and construction although made up of different words. eg. He reads a story. Shut the window. Stand up.


2. Phrase Patterns: Phrase pattern is a group of words which has meaning even without being a sentence. This structure also follows order of words and this order cannot be changed, e.g., on the table, for six years, the old woman.


3. Formulas: Groups of words used regularly on certain occasions are called formulas eg.. Good morning, Excuse me. Thank you.


4. Idiomatic Structures: Groups of words that must be learnt as a whole because it is not always possible to understand the meaning from the knowledge of the separate words are known as idiomatic structures, e.g., inspite of in order to, live form hand to mouth.


Selection of Structures 


Those structures should be selected which have the following characteristics:


1. Usefulness: Usefulness of a structure depends on how frequently it occurs in spoken and written form and how far it provides for the further building up of the language


2. Simplicity: The simplicity of a structure depends on its form and meaning. 


3. Teachability: It is easy to teach structures that are easily demonstrated in a realistic situation rather than those structures, which are abstract and cannot be demonstrated. 


4. Surrender Value: When one structure leads to another, it is said to chair This way one item can be correlated with the other. have a surrender value. For example, this is a chair and this is the leg of the


5. Structures should be up to the level of the learner's age


6. They should be upto the level of the learner's capacity to learn. 


Procedure of Teaching


In this approach, every structure is taught separately Steps can be as under :


(i) First of all, presentation of item is made in appropriate situations by the teacher.


(ii) Practising of oral drill by the student of these situations.


(iii) Presentation of the item in some new situations.


(iv) Oral drill by the students of situations which were created in the third step.


(v) Overall Drill.


Principles of Structural Approach


According to F.L. French the three principles of structural approach are :


(i) Importance of the child's activity rather than the activity of the teacher.


(ii) Importance of speech for firmly fixing word as speech is the basis of acquiring other skills like reading and writing.


(iii) Importance of language habit formation because it helps to arrange words in suitable English sentence pattern in order to replace the sentence pattern of the child's mother tongue.


Besides this some other principles should be followed : 


(i) Mastery of structures,


(ii) Meaningful situation, 


(iii)Use of text books, and


(iv) Method and situation of teaching.


Aims of Structural Approach 


Aims of Structural Approach are as follows:


(i) To lay the foundation of English through drill and repetition of about 275 graded structures.


(ii) To enable the children to attain mastery over an essential vocabulary of about 3000 root words for active use. 


(iii) To correlate the teaching of grammar and composition with the reading lessons.


(iv) To teach the four fundamental skills namely understanding, speaking, reading and writing.


Characteristics of Structural Approach 


Characteristics of Structural Approach are as follows


(1) It is very important in forming language habits.


(ii) It is important for the speaking point of view. Structures are presented orally and the students practice them through a number of oral drills, then reading and writing skills are introduced.


(iii) Practice of structural approach makes pupils active.


(iv) The approach involves selection and grading of structures to be taught, the difficult and complex structures are taken up at a later stage


(v) It is a multi-skill approach. It aims at achieving the four fold linguistic aims of teaching English.


Merits of Structural Approach


Main merits of structural approach are as follows:


(i) It facilitates the learning of English by imparting the knowledge of its structures.


(ii) It creates appropriate environment for learning the language.


(iii) Due to much oral drilling, whatever is learnt in the class, remains stable in their mind.


(iv) It develops and improves speech habits of students.


(v) This is an interesting method of teaching English because teaching aids are used which motivate the students and they learn English easily.


(vi) This method enables to make proper selection and gradation of the learning material.


(vii) It encourages students for free exposition or expression of thoughts.


(viii) The four pillars of language learning-listening, reading, writing and speaking are accomplished by this method.


(ix) This approach is useful in teaching of prose and poetry.


(x) It is based on scientific principle. The work of the teacher is systematic which amounts to 'economy of efforts'.



Demerits/Limitations


Limitations of this methods are as follows


(i) This approach is more suitable for lower classes because at higher level, the students feel bored by repetition of drills. 


(ii)This approach is material-centered, while the modern concept of education gives emphasis on child-centered education and activities. 


(iii) Selection and gradation of structure do not help to eradicate the problems of English.


(iv) This approach is not suitable for teaching text books prescribed in curriculum.


(v) This method minimizes language learning because entire language can not be learnt by mutation and repetition.


(vi) This method is not suitable for teaching prose, poetry, grammar and pronunciation.


(vii) It tends to overlook the linguistic habits already formed while learning the mother tongue.


(viii) Only well-graded and well-selected structure pattern can be taught through this approach.



Linguistic Approach

 Linguistic Approach


During the second world war, the problem of teaching foreign languages and English as a foreign language for full communication was faced adequately. This gave rise to a new approach known as the linguistic approach or Lingua method Linguists insist on the imitation and memorization of basic conversational sentences as spoken by native speaker. They also provided the descriptions or the distinctive elements of intonation pronunciation, morphology and syntax that constitute the structures of the language which gradually emerges as one masters the basic sentences and variations. The powerful idea of patterns; practice was developed because patterns rather than individual sentences particularly can be transferred from the native language.


The subject-matter of this approach contains:


(i) Basic conversational sentences for memorization.


(ii) Structural notes to help the students perceive and produce the stream of speech and sentence patterns of the foreign language.


(iii) Pattern practice exercise to establish patterns as habits


(iv) Laboratory material for oral aural practice out of class


(v) Opportunity for use of the language in communication rather than in translation.


Thus, this method limits itself to the working knowledge of a language and it is easier to learn in this way since one has not to go through intricacies. It is also easier since it needs minimum labour and saves so many technicalities. Besides this, it makes use of the latest technical devices in language teaching.

Communicative Approach- Characteristics, Advantages & Disadvantages


Communicative Approach


The educationists have seen and analysed shortcomings in the previously adopted methods and approaches and worked at introducing and developing a new method or approach suitable for teaching English in Indian conditions. Their activities resulted in the origin of a new approach named as communicative approach. It lays emphasis on the practical or user aspect of the language. It enables the students to communicate their ideas freely in and outside the class-room. This approach came into being as a result of realisation that with rapid development and industrialisation, the Indian people have to increasingly interact with the world and a method was needed to help to bridge the gap. As the basic purpose of a language is to impact ability to communicate one's ideas, notion, needs and feelings. This approach aims at communicative competence, including linguistic competence and ability to use the language appropriately.


Characteristics 


The main characteristics of this approach are as follows:

(i) It is based on the principles of use, communication and practice' in real situations. A situation can be un-predictable, varied and spontaneous.


(ii) It is based on the need analysts and looks forward to plan new kinds of syllabus and curriculum.


(iii) It is based on the old maxim of simple to complex and concrete to abstract, in which the simpler exercises are put at first followed and receiving the complex ones for a later stage. The progress is based on the performance requirement and not on the grasp of grammar or vocabulary.


(iv) It lays stress on the use of language rather than in its structures.


(v) It also lays stress on the semantic value of the language, it was means, to understand the meaning of vocabulary in real life situations.


(vi) The students are provided enough opportunities to communicate with the help of dialogues debates, discussions, dramas and other class-room activities.


(vii) It is an integrative approach which takes care of the four objectives of language learning.


(viii) It is a student centerd approach and puts the student in the core of the learning process.


Thus it is different from the traditional approaches of teaching English as it aims at the competence of the students in real life situations and results in development.


Advantages 


This approach has the following advantages


(i) This approach enables the students to communicate their ideas, feelings and thinking in a logical manner.


(ii) It develops the speech ability in the students.


(iii) Difficult and complex concepts can be taught through this approach. 


(iv) It is presented in such a way that the learner commits minimum errors.


(v) Diagnosis and remediation is also provided to the weak students.


(vi) It is based on the functional utility of the language.


Disadvantages 


The disadvantages of the communicate approach can be numerated as follows:


(i) This is a new approach and yet to be tested in language learning.


(ii) It ignores grammar and structures of language.


(iii) It requires trained teachers to teach with this approach. Teachers should have mastery over speech factor of the language.


(iv) It has not yet been fully implemented anywhere and its result is still quite ambiguous. It can be said that, though being a good approach it needs experimentation in the real life situations. It would need proper training of teachers and development of adequate and suitable training aids need to be effective.

July 16, 2023

शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र (Scope of Educational Administration)

शैक्षिक (शिक्षा) प्रशासन का क्षेत्र (Scope of Educational Administration


शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत मानवीय और भौतिक दोनों तत्वों को सम्मिलित किया जाता है। मानवीय तत्वों में शिक्षक, शिक्षार्थी, अभिभावक, प्रशासन, निरीक्षक आदि की गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है तथा भौतिक तत्वों में विद्यालय भवन, वित्त, सामग्री, उपकरण, फर्नीचर, तथा अन्य साज-सज्जा का समावेश किया जाता है। इस प्रकार शिक्षा सम्बन्धी सभी तथ्य, योजनाएँ, नियन्त्रण, प्रतिवेदन, निर्देशन, निरीक्षण, बजट आदि सभी शैक्षिक प्रशासन की सामग्री है। आज शैक्षिक प्रशासन का विस्तार दूर-दूर तक हो गया है। फलस्वरूप - शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो गया है।

प्रशासन को शिक्षा से सम्बन्धित करके आर्डवे  टीड ने इस प्रकार विभाजित किया है –

ये पाँच क्षेत्र निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किए जा सकते हैं-

(1) उत्पादन

 (2) सामुदायिक उपयोग में विश्वास

 (3) वित्त एवं लेखांकन

 (4) कार्मिक 

 (5) समन्वय । 

प्रशासन को शिक्षा से सम्बन्धित करके जे० बी० सीयर्स महोदय ने इस प्रकार विभाजित किया है—

(i) शैक्षिक लक्ष्यों की स्थापना।

 (ii) शिक्षा कार्मिकों का विकास करने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

(iii) अधिकार के प्रयोग की प्रक्रिया एवं प्रकृति की परिभाषा देना (शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाना)।

(iv) उद्देश्यों एवं प्रक्रियाओं की प्रकृति तय करना और

(v) संरचना तय करना अर्थात् शक्ति एवं सत्ता के प्रयोग हेतु प्रशासनिक तन्त्र का प्रयोग करना ।

इस प्रकार शैक्षिक प्रशासन में अनेक गतिविधियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए शैक्षिक प्रशासन के विस्तार को देखते हुए इसे निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है—

 शैक्षिक प्रशासन के विस्तार को देखते हुए इसे निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है—


(1) कानून नियम व व्यवस्था (वैधानिक संरचना) — इसके अन्तर्गत शिक्षा के अभिकरण के अधिकार व कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को निर्धारित किया जाता है और प्रबन्ध का विकेन्द्रीकरण किया जाता है। इस प्रकार  प्रशासन से सम्बन्धित नियम, कानून, शर्ते, व्यवस्थाएं आदि को शैक्षिक प्रशासन में सम्मिलित किया जाता है।


(2) बाल-केन्द्रित व्यवस्था (बालक) — आधुनिक शिक्षा में बालक पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसलिए आज की शिक्षा बाल-केन्द्रित शिक्षा कहलाती है। बाल केन्द्रित से अभिप्राय बालक के विकास के लिए की जाने वाली प्रक्रिया से है, अर्थात् बालक के व्यक्तिगत और सामूहिक विकास के उद्देश्य निर्धारित करना और बालक  की रुचि, क्षमता, समाज की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा की प्रक्रिया निर्धारित करना और प्रवेश उन्नति, अनुशासन आदि के नियम बनाना व लागू करना शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र है।


(3) कर्मचारी वर्ग (कार्मिक) – शैक्षिक व्यवस्था की सफलता अच्छे प्रशासन पर निर्भर करती है और अच्छे प्रशासन में कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। कर्मचारी ही मानवीय व भौतिक संसाधनों को ध्यान में रखते हैं और उद्देश्य प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं। इसलिए योग्य कर्मचारी की नियुक्ति, सेवा शर्तों का निर्धारण, प्रशिक्षण की व्यवस्था, वेतन, कल्याणकारी योजनाएं, सेवामुक्ति सम्बन्धी लाभ उत्पादन को बढ़ाने हेतु अतिरिक्त बोनस देना आदि की व्यवस्था आवश्यक होती है, तभी शैक्षिक प्रशासन अच्छा शासन प्रदान कर सकता है। अतः सेवाकालीन प्रशिक्षण आदि प्रभावकारी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए।


(4) वित्तीय नियोजन – इसके अन्तर्गत शिक्षा से सम्बन्धित नीतियाँ तथा विविध कार्यक्रम बनाए जाते हैं। इस हेतु संख्या सम्बन्धी आँकड़े एकत्र करना, भवन-निर्माण की योजना बनाना, आय-व्यय का लेखा-जोखा, अंकेक्षण प्रतिवेदन तैयार करना आदि कार्य आवश्यक है। शैक्षिक गतिविधि हेतु वित्त की व्यवस्था, स्टॉफ का व्यय, भवन-निर्माण, मेण्टीनेन्स, बीमा, बजट बनाना आदि की व्यवस्था अच्छी होनी आवश्यक है। व्यवस्था अच्छी है तो कार्यक्रम भी अच्छे होंगे। अतः शैक्षिक प्रशासन वित्तीय साधनों का पता लगाता है और शैक्षिक लक्ष्यों की शर्तें हेतु उनका दोहन करता है।


(5) भौतिक व शारीरिक सुविधाएँ— भौतिक सुविधाए— विद्यालय भवन, उपकरण, रख-रखाव और भौतिक सुविधाओं को व्यवस्था शैक्षिक प्रशासन के द्वारा की जाती है। इसके साथ ही बालक के सर्वांगीण विकास हेतु खेलकूद सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती है; जैसे—खेल का मैदान, खेल-सामग्री, निर्देशन, स्वास्थ्य की जाँच कराना प्रशासन का दायित्व है।


(6) पाठय़क्रम – शिक्षा  के लक्ष्यों को प्राप्त करने का माध्यम पाठ्यक्रम होता है और पाठ्यक्रम शैक्षिक प्रशासन से सीधा सम्बन्ध रखता है। शैक्षिक प्रशासन पाठ्यक्रम का निर्माण, आयोजन और परिवर्तन करता है। परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक तकनीकी एवं सामाजिक परिवर्तनों को ध्यान में रखा जाता है और शैक्षिक कार्यक्रमों का मूल्यांकन करके इसमें सुधार की व्यवस्था भी शैक्षिक प्रशासन द्वारा की जाती है। शैक्षिक प्रशासन द्वारा ही विषय-वस्तु की तैयारी, पुस्तकों का वितरण तथा अन्य साहयक सामग्री पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके अतिरिक्त भोजन, स्वास्थ्य सेवाएं, मनोवैज्ञानिक परीक्षण, निर्देशन, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएं आदि का आयोजन भी शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में ही निहित है।


(7) व्यापक जनसम्पर्क - शैक्षिक कार्यक्रमों के संचालन में अध्यापक, छात्र और अभिभावक मूल आधार है, इनके सहयोग के बिना कार्यक्रम संचालन सम्भव नहीं हो पाता है। इसलिए व्यवस्था को दृढ़ता प्रदान करने हेतु व्यापक जनसम्पर्क की आवश्यकता होती है। इसके लिए सूचना माध्यमों का सहारा लिया जाता है और विविध समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, टी०वी० आदि के द्वारा जानकारी प्राप्त की जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रशासन और समुदाय के मध्य दूरियाँ कम हो जाती हैं और और निकटता बढ़ती है। परिणामस्वरूप सामुदायिक संसाधनों का उपयोग विभिन्न महत्त्वपूर्ण सेवाओं में किया जा सकता है।


(8) समन्वय स्थापित करना – शैक्षिक प्रशासन उपलब्ध साधनों और कर्मचारियों के मध्य समन्वय स्थापित करता है। समन्वय से ही व्यवस्था को सुचारू रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है और सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया की सफलता समन्वय पर ही आधारित होती है, क्योंकि समन्वय से ही सम्बन्धित समस्याओं का ज्ञान और समाधान सम्भव होता है। इसके साथ ही शिक्षा का स्वरूप तैयार करना और समय-समय पर मूल्यांकर करना समन्वय द्वारा सुगमतापूर्वक किया जा सकता है, इससे व्यक्ति और समाज दोनों के लिए शैक्षिक प्रशासन लाभकारी सिद्ध हो सकता है।


(10) उद्देश्य एवं मूल्यों का निर्धारण करना – शैक्षिक प्रशासन व्यक्ति और समाज के हित को दृषि में रखकर उद्देश्यों, आदर्श मूल्यों और सिद्धान्तों का निर्धारण करता है। वह सभी शिक्षार्थियों के लिए शैक्षिक कार्यक्रम की योजना बनाता है और उन्हे क्रियान्वित भी करता है।

शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है I इसमें वित्तीय नियोजन, जनसम्पर्क, पाठ्यक्रम, भौतिक सुविधाओं आदि विभिन्न क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। 


जाता है और निष्कर्ष निकाला जाता है। इस प्रकार उपलब्ध जानकारी का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है और समस्याओं के समाधान हेतु प्रशासनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है। 


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